Book Title: Chinta Krodh aur Tanav Mukti ke Saral Upay
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ निभाओ लिया नियम, दिया वचन लिया हुआ नियम और दिया हुआ वचन मरकर भी निभाने की कोशिश करो। मैं कहना चाहता हूँ कि आप सोचें और देखें कि आपके जीवन की क्या मर्यादा है ? आप देखें कि आप अपने जीवन में इन-इन बातों के प्रति ईमानदार हैं क्योंकि जिस शहर में आप जिस पद पर हैं वहाँ आपको कोई रिश्वत देने नहीं आ रहा है। आप इसलिए ईमानदार हैं कि कोई व्यक्ति आपको गलत धन देने के लिये तैयार नहीं है। बेईमानी का मौका मिले फिर भी आप जीवन में अपनी ईमानदारी को बरकरार रख सकें तभी पता चल सकेगा कि वाकई आप ईमानदार हैं । याद रखें, आप रिश्वत लेकर पत्नी के हाथों में हीरे की चूड़ियाँ पहना सकते हैं। आपके हाथों में इस जुल्म के कारण कभी हथकड़ियाँ आ गयी तो क्या करोगे। आज के युग में हरिश्चन्द्र की कथा वांचने की जरूरत नहीं है, जरूरत तो हरिश्चन्द्र के आदर्श को जीने की है। जीवन की मर्यादा लाओ, जीवन का बांध बनाओ, जीवन की सीमाएं बनाओ कि आप कहाँ, किस तरह उसे जीएंगे। जीवन को अनासक्तिपूर्वक जीने की व्यवस्था बनाई जाए। व्यक्ति संसार में रहे, संसार की धारा में रहे, संसार के साथ रहे लेकिन संसार के साथ बहे नहीं। उसके मन में संयम और मर्यादा के प्रति श्रद्धा हो। उसे विवेक रहे कि वह संसार में रहकर भी संसार की धारा में अनासक्त जीवन जीएगा। रात को देखे जाने वाले स्वप्न आँख खुलते ही टूट जाते हैं। दिन के स्वप्न भी तब टूट जाते हैं जब आँख बंद हो जाती है। सपनों के संसार में कैसी तृष्णा, वासना, विलासिता और कामना ! खंडों में भी अखंडता भारतीय परम्परा में जीवन जीने की व्यवस्था दी गई है। केवल अर्थोपार्जन की व्यवस्था नहीं, केवल कामसेवन की व्यवस्था नहीं, केवल दुनियादारी की व्यवस्था नहीं है बल्कि पूरे जीवन की व्यवस्था की गई है। जीवन का एक भाग शिक्षा-दीक्षा के लिए, दूसरा भाग धनोपार्जन, परिवार के पालन-पोषण और बच्चों की परवरिश के लिए, जीवन का तीसरे भाग घर में रहते हुए भी अनासक्त जीवन जीने के लिए और चौथा भाग मुक्ति और संन्यास के लिए है। इतिहास गवाह है कि जिन सम्राटों ने बुढ़ापे की 135 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154