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फकीर ने कहा 'मैंने तो जवाब दे दिया न् !' युवक ने कहा ‘मैं कुछ समझा नहीं, आपने तो कुछ भी जवाब नहीं दिया।' फकीर ने कहा 'मैंने तुम्हें जवाब दे दिया है । तुम्हारा प्रश्न था कि तुम साधु बनो या शादी करो और तुम्हें इसका जवाब मिल गया है।' युवक ने कहा - 'मैं आपकी बात नहीं समझ पाया, कृपया स्पष्ट करें।' फकीर ने कहा 'युवक, तुम साधु बनना चाहते हो तो जरूर बनो, लेकिन उस साधु की तरह जिसे मैंने तीन बार नीचे बुलाया, तब भी उसके चेहरे पर किसी प्रकार की शिकन या क्रोध की तरंग नहीं थी । उस वृद्ध साधु के मन में कोई विक्षोभ नहीं था। बार- बार नीचे आकर, ऊपर जाकर भी उसके अन्तर्मन में शांति और मेरे प्रति कितना प्रेम था ! हाँ, अगर तुम शादी करना चाहते हो तो ऐसी पत्नी लेकर आना जिसे दोपहर में दो बजे कहो कि लालटेन जलाकर लाओ तो वह यह न पूछे कि सूरज की रोशनी में लालटेन का क्या करोगे ? साधु बनना हो तो उस साधु की तरह बनो जहाँ मन में प्रश्न न उठे कि बार-बार नीचे आने-जाने की तकलीफ क्यों दी जा रही है ! यदि शादी करो तो पत्नी के मन में दिन में भी लालटेन मांगने के बाद प्रश्न न उठे कि लालटेन क्यों मांगी जा रही है ! '
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जीवन जीने की स्पष्टत: दो व्यवस्थाएँ हैं और दोनों ही बेहतरीन हैं बशर्ते उन्हें बेहतरीन तरीके से जिया जाए, मर्यादित रूप में जिया जाए । जीवन जीने का पहला मार्ग गृहस्थ और दूसरा संन्यास है। साधुत्व और संसार ये दोनों जीवन जीने के दो मार्ग हैं। एक ओर संसार की और दूसरी ओर संन्यास की धारा है । दोनों की तुलना नहीं करूँगा क्योंकि दोनों ही अपने आप में अच्छी हैं । हम एक को हीन और दूसरे को श्रेष्ठ नहीं कह सकते। संसार में भी व्यक्ति नियम, मर्यादा और विवेक के साथ जीता है तो संसार भी श्रेष्ठ और संन्यास को अगर अमर्यादित, अविवेकपूर्वक जिया जाए तो संन्यास भी त्याज्य है। सफेद कपड़े या काली पैंट, सफेद साड़ी या लाल साड़ी, उपाश्रय या घर महत्वपूर्ण नहीं हैं, महत्वपूर्ण यह है कि कौन किस तरीके से जी रहा है ?
कुछ गृहस्थ अपने जीवन को इतना निर्मल और पवित्र रूप से जीते हैं कि वे संत जीवन से भी श्रेष्ठतर जीवन जी जाते हैं । कुछ गृहस्थ
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