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जीवन की मर्यादाएँ और हम मर्यादा जीवन का बंधन नहीं, निर्मल और व्यवस्थित रूप से जीवन जीने की शैली है।
एक युवक के मन में जीवनपरक आन्तरिक समस्या उठी। उस समस्या का समाधान पाने के लिए वह कई जगह गया, लेकिन कोई भी समाधान उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। उसके मन में यह प्रश्न था कि वह विवाह कर गृहस्थी बसाये या साधु बनकर संन्यास के मार्ग को जीवन में चरितार्थ करे। जिसके पास भी जाता, वह अपना ही मार्ग श्रेष्ठ बताता। संतजन कहते, 'संन्यासी बन जाओ, शादी करली तो बहुत दुख पाओगे।'
और गृहस्थ कहते ‘विवाह कर लो, गृहस्थी बसा लो, संन्यासी बन गये तो बड़े पछताओगे।' साधुता या शादी?
एक दिन वह किसी फकीर के पास पहुँचा और उनसे कहा - मैं अभी यह समझ नहीं पाया हूँ कि मैं क्या निर्णय करूँ? छब्बीस वर्ष की आयु हो गई है फिर भी अनिर्णय की स्थिति में हूँ कि विवाह करके घर बसाऊँ या संन्यास लेकर साधु का जीवन जीऊँ।' फकीर ने कहा, 'बैठो थोड़ी देर में जवाब मिल जाएगा।' थोड़ी देर बाद फकीर ने अपनी पत्नी से कहा – 'मैं बाहर जा रहा हूँ। दो-तीन घंटे बाद घूमकर आ जाऊँगा।' फकीर ने युवक को अपने साथ लिया और वे जंगल में जाकर एक पहाड़ी की तलहटी पर खड़े हुए। उन्होंने पहाड़ी के शिखर की ओर मुँह करके
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