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पन्ना पलटा, हम भी पलट लें
'सगे भाई ! ' मैंने चुटकी लेकर कहा- 'क्या बीस-बाईस साल पुराना कैलेण्डर है आपके घर में ? जरा लाइए तो ।' वह सकपकाया और कहने लगा- ‘महाराज, आप भी क्या बात करते हैं ? बीस साल पुराना कैलेण्डर घर में थोड़े ही होता है।' मैंने कहा- 'जब तुम दो साल पुराने कैलेण्डर को भी घर में नहीं रख सकते तो बीस साल पुरानी बात को अपने घर में या मन में क्यों रखे हुए हो ? उसे निकालो, क्योंकि यह सब तुम्हारे दिमाग का कचरा है ।' शायद नगरपालिका की कचरापेटी की सफाई रोज होती होगी लेकिन मनुष्य का दिमाग उस कचरापेटी से भी बदतर है क्योंकि उसने दिमाग में काम की बातें तो दो प्रतिशत किन्तु ऊल-जलूल इधर-उधर की बातों का संग्रह अट्ठानवें प्रतिशत कर रखा है । वैरविरोध, वैमनस्य, प्रतिशोध की भावना वही व्यक्ति पालता है जिसने जीवन में क्षमा और प्रेम का आनन्द नहीं लिया है। जिसने अमृत का आनन्द नहीं लिया है वही समुद्र के खारे पानी को पीना चाहता है । तुम खारे पानी को पीने के आदी हो चुके हो और मीठे जल के स्वाद से वंचित हो । जलती हुई शाखा पर कोई भी पंछी अपना घोंसला नहीं बनाना चाहता है। गुस्सैल अथवा क्रोधी आदमी के पास उसका सगा भाई भी बैठना पसंद नहीं करता है ।
प्रतिशोध तो वह विष है जो मस्तिष्क की ग्रंथियों को कमजोर करता है और मन की शांति को भस्म कर देता है । अगर मनुष्य यह सोचता है कि वह वैर को वैर से, युद्ध को युद्ध से, हिंसा को हिंसा से काट देगा तो यह उसकी भूल है । वैर-विरोध और वैमनस्यता की स्याही से सना हुआ वस्त्र खून से नहीं बल्कि प्रेम आत्मीयता, क्षमा तथा मैत्री के साबुन से साफ किया जाता है। पुराने आघातों को याद करना मानसिक दिवालियापन है, बदला लेने की भावना क्रूरता है और प्रतिशोध की सोच आत्मघात है।
यही है सनातन संदेश
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'न हि वैरेण वैराणि समंन्तीध कदाचन । अवैरेण हि समन्ती-एस धम्मो सनंतनो ॥ वैर से वैर को मिटाया नहीं जाता और प्रतिशोध की आग
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