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न बांधे वैर की गांठ
हम एक शहर में थे। किसी महानुभाव ने तपाराधना के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण समाज के भोज का आयोजन किया। जिस दिन भोज का आयोजन था उस दिन समाज के कुछ वरिष्ठ व्यक्ति हमारे पास आए और कहने लगे कि 'जिस व्यक्ति के द्वारा आज सम्पूर्ण भोज का आयोजन है, वे दो भाई हैं लेकिन उनका दूसरा भाई व उसका परिवार इस भोज में नहीं आएगा। उन लोगों ने हमसे निवेदन किया कि, साहब, आप चलें और उसे समझाएँ। शायद आपके कहने से वह मान जाए।'
उन लोगों के साथ मैं उस महानुभाव के घर गया। उसने मुझे सम्मान-पूर्वक बैठाया। बात ही बात में मैंने कहा कि 'आज तो आप के परिवार की ओर से सम्पूर्ण समाज का भोज है।' उसने कहा, आप ऐसा न कहें क्योंकि वह मेरा नहीं बल्कि मेरे भाई के घर का है।' मैंने कहा, 'सो तो ठीक है लेकिन आप लोग तो आएंगे न!' वह तपाक से बोल पड़ा, 'किसी हालत में नहीं।' मैंने पूछा, 'क्यों ऐसी क्या बात है?' वह कहने लगा कि 'सोलह साल पहले भरे समाज में उसने मेरा अपमान किया था तब से आज तक मैंने उसके घर का पानी तक नहीं पीया है।'
मैंने बड़ी सहजता से उस भाई से कहा - 'भाई, जरा सोलह साल पुराना कोई कलेण्डर लाना।' मेरी बात सुनकर वह चौंका। उसने कहा, 'आप भी कैसी मजाक करते हैं ? सोलह साल पुराना कलेण्डर घर में थोड़े ही रखा जाता है। मैंने कहा - 'महीना बीतता है तो कलेण्डर का पन्ना पलटा जाता है और वर्ष बीतने पर कलेण्डर को ही पलट दिया जाता है। जब सोलह साल पुराना कलेण्डर घर में नहीं है तो सोलह साल परानी बातों को क्यों ढो रहे हो।' मेरी समझाने से उसके दिमाग में मेरी बात थोड़ी-सी उतरी । मैंने दूसरे भाई को भी बुलवाया और दोनों को एक दूसरे के हाथ से मिश्री का टुकड़ा खिलाकर पारस्परिक प्रेम स्थापित किया।
यह तो संयोग था कि ऐसा हो गया अन्यथा क्रोध और आवेश में तो बँधी हुई वैर की गांठों को कुछ ही लोग ऐसे होते हैं तो जीते जी वापस खोल पाते हैं। जीवन में इस तरह की स्थिति खड़ा करता है हमारे भीतर पलने वाला क्रोध।
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