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खलीफा हुसैन था। उस समय का जमाना गुलामों का था। मनुष्य खरीदेबेचे जाते थे। गुलामों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। तिस पर खलीफा हुसैन तो मानो क्रोध के अवतार ही थे। अगर वे किसी गुलाम से खफा हो जाते तो सिवा मौत के वे अन्य कोई सजा ही न देते। एक दिन खलीफा हुसैन अपने महल में नमाज अदा कर रहे थे। तभी एक गुलाम अपने हाथ के बर्तन में उबलता हुआ पानी लेकर उधर से निकला। अचानक उसे ठोकर लगी और बरतन हाथ से छूट गया और गरम पानी नीचे फैल गया। कुछ बूंदे नमाज पढ़ते हुए खलीफा हुसैन पर भी जा गिरी । वह चौंक गया और गुस्से से भर गया। चूँकि उस समय वह नमाज़ अदा कर रहा था अतः उठ नहीं सकता था।
उधर गुलाम ने सोचा कि आज तो मौत का फरमान जारी होकर ही रहेगा। उसकी आँखों के सामने मौत नाचने लगी। तभी पास में रखी हुई पवित्र कुरान की पुस्तक उसने उठा ली। वह उसके पन्ने उलटने लगा
और खुली पुस्तक हाथ में रख ली। वह सोचने लगा कि अब तो मरना ही है। मरने से पहले कुरान की कुछ आयतों का पाठ ही क्यों न कर लूं। कुरान के पन्नों पर जहाँ उसकी नजर पड़ी, उसने पहली आयत पढ़ी, 'जन्नत उनके लिए है जो अपने क्रोध पर काब रखते हैं। खलीफा के कानों में ये शब्द पड़े और वह सचेत हो गया। उसने स्वयं को देखा कि उसके अंदर गुलाम के प्रति क्रोध उमड़ रहा है। वह पीछे मुड़ा और बोला, 'हाँ, हाँ मेरा गुस्सा मेरे काबू में है।' गुलाम ने सोचा कि कुरान की आयत काम कर रही है। एक सच्चा मुसलमान हर बात का इन्कार-तिरस्कार कर सकता है लेकिन कुरान के शब्द उसके लिए पत्थर की लकीर होते हैं। तभी गुलाम ने अगली आयत पढ़ी, 'जन्नत उनके लिए है जो गलती करने वालों को माफ कर देते हैं।' जब यह पवित्र वाव्य खलीफा हुसैन ने सुना तो वह फिर चौंका और सोचा कि वह आयत तो सिर्फ उसी के लिए कही गई है। उसने पुन: सिर ऊँचा किया और कहा, 'जा, मैंने तेरी गलतियों को माफ किया।'
गुलाम तो खुश हो गया कि कुरान की दो आयतों ने कमाल कर दिया। तब उसने तीसरी आयत पढ़ी, 'खुदा उनसे प्यार करता है जो दयालु
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