Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 9
________________ २० उदय से जो बुद्धि को प्राप्त हो रहा है संसार अनादि है। उस संसारब्ती कारागृह में आयु कर्म हो वह जीव नरक विच मनुष्य और देवगति पर्यायों में ६का रहता है। इसी से अर्हत अवस्था प्राप्त होने पर भी जीव मनुष्य पर्याय में प्राप्त होनेवाले औदारिक शरीर में मनुष्यायु की समाप्ति तक रुका रहता है । और जाम के अन्तिम निवेोदय होते (आयु कर्म की निर्जरा होने पर) ही वह मुक्त हो जाता है। 4 नामकर्म चित्रकार की तरह अनेक कार्यों को किया करता है। यह कर्म नारकी वीर जीव की पर्यायों के भेदों को मौदारिकादि शरीर के भेदों को तथा जीव के एक पति से दूसरी गतिरूप परिणमन को कराता है इस कर्मा जीव के हाथ पौदहवें गुपस्थान तक संबन्ध बनाता है। इस द्वारा निर्मित औदारिक शरीररूप कारागृह से मुक्त होने पर ही जीव सिद्धावस्था को प्राप्त करता है। कुल की परिपाटी के क्रम से चले आये जीव के आचरण को गोत्र कहते हैं । उस कुल परंपरा में कंवा आवरण हावे तो उसे उपगोत्र कहते हैं और यदि नीच आचरण होवे तो मीच गोत्र कहते है इस कर्म से भी जीव के विकाश में कोई बाधा नहीं होती है । स्पर्शनादि इन्द्रियों का अपने अपने स्पर्शादि विषयों का अनुभव करना बेदनीय कर्म है। वेदनीय कर्म के सातावेदनीय और असातावेदनीय दो भेद हैं। उसमे दुखरूप अनुभव करामा असातावेदनीय है और मुरूप अनुभव करामा सातावेदनीय है। अर्थात् जीव को रूप अनुभव वेदनीय कर्म द्वारा हुआ करता है। इस प्रकार संसार जीव का कर्मों के साथ अननस सम्बन्ध पता आरहा है। योग के निमित्त मे जो विषय पुद्गल द्रव्य से पुद्गल स्कंध जो योगों का निमित्त पाकर जीव के साथ सम्पर्क स्थापित लेते हैं आग देशों के साथ सम्बन्धित होते है, वे पुद्गल कब आत्मा से सम्बद्ध होते ही कर्म कहलाने लगते हैं और सरकाल हो उसी योगबल से उस कर्म द्रव्य का ज्ञानावरणादिरूप से आठ भेदमें तथा १४८ प्रभेदों में विभाग हो जाता है । कर्मद्रव्य के इस भेदरूप] स्वभाव मेव का नाम ही प्रकृतिबन्ध हैं て I अर्थात उस कर्मगंगा में दिकारी जीव के सम्पर्क से शीव के ज्ञानादि गुणों के बात करने और परतंत्र बनाये रखने का स्वयं स्वभाव निर्मित होता है। कमों में इस प्रकार की पाक्ति का बना रहना ही प्रकृति के प्रदेशों के साथ कर्मप्रदेशों का घुल मिल जाना ही प्रदेशबन्ध है के साथ इन कर्मों का इसो स्वभाव से बने रहने की कालमर्यादा का निर्माण जीवके कोषादि कषागों पर आधारित रहता है। प्रकृतिबन्ध के समय जीव के जिस तरह के तीव्रादि संक्लेश परिणाम रहते है कर्मों में वंसी ही ज्यादा और कम स्थिति पडती है इसी की स्थितित्रन्य कहते हैं । और उसी कषायानुसार इन कर्मों में फल देने की शक्ति का निर्माण होता है। कमोंके उदय होनेपर हो जीवों को बद्ध कर्मो का फल मिलता है इस कर्मफलानुभव का नाम ही अनुमागत्य है। इस प्रकार एक समय में योगों द्वारा अप्ठ कर्म द्रदय में चार प्रकार की दाक्ति आविर्भूत हो तो, जिसे प्रकृति बन्ध स्थिति बन्ध अनुभव और प्रदेशबन्ध कहते हैं वारों में अनुभागही अर्थात कमों का विपाक ही जीव को सुख दुखी करने में निर्मित होता है। कमों को चार अवस्थायें बधावस्था को प्राप्त प्रकृतियों के उदय का फल जोव को विभिन्न समय और अवस्थाओं में प्राप्त हुआ करता है। एक सौ अठतालीस प्रकृतियों में से औवारिक शरीर से लेकर स्वयं नाम तक ५० तथा निर्माण व उद्योत स्थिर अस्थिर शुभ अशुभ प्रत्येक साधारण अगुरु लघु अवसरबात इन बालक प्रकृतियों के उदय का फल जीव को पुद्गल के माध्यम से ही मिलता है। इसीलिये इस प्रकृतियों

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