Book Title: Chautis Sthan Darshan Author(s): Aadisagarmuni Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana View full book textPage 7
________________ १८ नियम मही है. किकामोदय के निमित्त से बह नियम से राग-देष मोह और अज्ञानमय विभावरूप परिणमें । जब जीव स्वरुपावलम्बन के बल से दर्शनशान चारित्रमय परिणमन करता है । उस ई भी विभाव परिणति नहीं होती है। विभाब परिणतिरूप प्रमादावस्था के अभाव में जीव के कर्मों का आसत्र और बन्ध रुक जाता है 1बन्ध के अभाव में जीव का जन्म मरणरूप संसार समाप्त हो जाता है। जीव और कर्म नवोन वाघामाव होने पर पूर्व वढे कम आत्मविशद्धि से निजागं हो जाते है। मम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से विच्छंद होते ही आरमा मुक्त हो जाता है। जैनागम में कम-विष्य का विस्सत वर्णन है । भगवान ऋषभ देवादि चौबीस तीर्थकरों के प्रामाणिक उपदेश का सार यहणकर मंघावी महान तार्किक जैनाचार्यों में षटखण्डागम, गोम्मटसार-कर्मकाण्ड आदि ग्रन्यों में कर्म सिद्धान्त का विरजत वर्णन किया है। कर्म का सामाग्यस्य रूप नाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चकवती ने निम्नप्रकार है. पयडो सः माय', जीवगाणं अणाइगम्बन्धों। कणयांवले मलव ताण अथित्तं सय सिद्धं ।। असे जलक, स्वभाव शीतल, पवन का स्वभाव तिरछा बहना और अग्निका स्वभाव कार की ओर जना है । उमा प्रकार निमित्त के बिना वस्तु का जो सहज स्वभाव होता है, उसे प्रकृति, लक्षी अथवा स्वभाव कहते है। यहा पर दस्तू शब्दसे जीब और पुदगल का ग्रहण किया गया है। इन दोनों में से जीव का स्वभाव रागादिरूप से परिणमने काह और कर्म का स्वभाव जीव को रागादिप से परिणमाने में निमित्त होने का है । पोवालिक कर्म और जीव क, यह सम्बन्ध अनादि का है। जैसे खदान से निकर ने वाले - पाषाण में सोने और मल का मेल कब हआ कहना अशवम है, उसी तरह चेतन जीव द्रव्य और जड कग द्रव्य के सम्बन के विषय में तक करना अनपयोगी है। इसीलिये आचार्य देव ने इन दोनो द्रव्यों के संयोग को अनादिकालीन स्वीपार किया है। वलादि आर्ष ग्रन्थों में भी संसारि जी का अनादिद्रव्य कर्म के साथ सम्पर्क माना है । अनादिकालीन द्रव्य कर्म के उदय होने पर उसके निमित से जोर र गाद करायरूप विमाव परिणति में परिणमित होता है । स्वभाव से हो उन व्यों का ऐसा पारस्परिक कार्य कारण भाव चला आ रहा है । कभी जीव के रागादि विभावरूप निमित्त कारण से पुदगल द्रभ्य विकृत होकर कमरुप में परिवर्तित हो जाते है । और कभी कर्मोदय का निमित्त प्राप्त कर जीव विभावरूप में परिणमन करत है। इस तरह सहजरूा से दोनों द्रव्यों में कार्य कारण भावबना हुआ है। शाले मिस अहम' में ऐसा प्रतीति जीव का अस्तित्व सिद्ध करती है और कर्मका अस्तित्व कोईधनी कोई निधन, कोई मखं कोई विज्ञान, इत्यादि चित्रिता प्रत्यक्ष देखने से सिद्ध होती है। वास्तव में हम आस्मा की विविध नरकादि अवस्थाओं के होने में निमित्त है । और वह जीव की उस अवस्था के योग्य शरीर, इन्द्रिपादि प्राप्ति का प्रमुख हेतु है । इसलिये जीव द्रव्य और कर्म दोनों ही पदार्थ अनुभव सिद्ध जीव औदारिकादि शरीरसहित शरीर नामा नारकर्म के उदम से मन, बचन और काय योग से ज्ञानावरण दि आ3 कमरूप होनेवाली कर्मवर्गणाओं को एक औदारिक, बैंक्रियिक हारक और जसरीरPage Navigation
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