Book Title: Chautis Sthan Darshan Author(s): Aadisagarmuni Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana View full book textPage 5
________________ इस शौंतीस-स्थान वर्शन अन्य । मूल स्तम्भ कर्म-सिद्धान्त लेखक-पं. ताराचन्द जैन, शास्त्री न्यायतीयं नागपुर. असोम आकाश दो ठीक पम्य-माग में लोक (विश्व ) की रहस्यमय विचित्र रचना है । षड्दर्शन के मणेताओं तथा अन्य दार्शनिकों ने अपनी अपनी प्रतिमा के बनसार लोक के इस रहस्य को जानने एवं उसे प्रकट करने का प्रयत्न किया है। परन्तु अपने सीमित बुदिल से विशाल लोक के रहस्य को न जानने के कारण उनमें से कुछ ने सर्वशत्रित सम्पन्न, एक ईश्वर को ही लोक का नियन्ता उदघोषित किया है । तथा कुछ ने परिणामी नित्य प्रकृति को ही इसका निर्माता माना है। परन्तु जैन दर्शन में पोक रचना सम्बन्धी माना नसमें नियमिक है जित अपति राग-देष-मोह और अज्ञान आदि समस्त आत्मिक दोषों और दुर्वलताओं पर विजय प्राप्त करने वाले पूर्ण बताग, मी एवं हितीपदेशी परमात्मा द्वारा प्ररूपित किया गया है। इस अवसपिणी काल में हर दर्शन के प्रणेता भगवान वक्षनदेवादि चोरोस तीपंकर हए है। उन लोकहितेषी महापुरुषोन अपने केवलज्ञान से लोकालोकका पूर्ण यस्य यथावत जानकर भिमारकार से उसका स्वरूप प्रकट किया है। लोक विभाग भाकाश द्रव्य अनन्त है। इस अनन्त (अमर्याद) आकाश के बिलकुल बीच में जीव, • पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन यह द्रव्यों के मेल से ही मोफ निर्मित हुआ है। लोक के मुख्य तीन विभाग है ऊलोक, मध्यलोक और अघी लोका उछलोक के सर्वोपरि भाग में (तनपातवम्य में) मुख्यतः सिद्ध परमात्मा अनुपम अनम सुख का निरावाषरूप से अनुभव करते हुए विराज रहे है। उससे नीचे सथिसिद्धि आदि अनुपम घोमासम्पन्न ३९ विमानों की सौंदर्य पूर्ण रचना है । इन विमानों (स्वर्गभूमि) में पूण्याधिकारी जीवों का जन्म हुआ करता है । जो भी मन व्य शुभ भावों से जितना पूष्यसंचय करता है, वह मरने के बाद तदनकुल भागावभंग सहित स्वर्ग में जन्म धारणकर चिरकाल तक एन्द्रिक सुख भोगता है। जो मनध्य रत्नश्यरूप धर्म का आराधम का वह स्वामति के बससे आयभादि वर्मो का अन्तकर सीका में सतत निवास करता है । तथा कतिपय रत्नन यपारी जीव पुण्यातिदाय और शुभ भावों से भरकर देवाय का बन्ध करके सवार्यासधि आदि पश्च अनुत्तर और नवअमुविक्षों में दन्न पर्याय धारण करते हैं। वहां पर भी ये भोगोप मोगोमें अनासक्त रहते हूए तस्व चर्चा और तत्वान चिन्तन में सेतस सागर सेसंदीपंकाल को भी अनायास व्यतीत कर देते है। कध्वंलोक से नीरे मध्यम कोक की प्राकृतिक रचना है। इसमें मयनबसी देव, व्यंतर देव और सूर्म, घद्र आदि ज्योति देव, मनप्य और विविध प्रकार के तिवन निवास करने है । इस लोक में जम्बूद्वीपरादि असंख्य द्वीप और समुद्रों की महत्वपूर्ण रचना है। इसकेचे अधोलोक न्यायास्या है। नीचे नाचे सात नरक अमिया अनादिकाल से विद्यमान हैं। इनमें पाप संडर करनेवाले जीवही अपने पापों का फल भोगने के लिये दहा जन्म धारण करते है। सभी नारकी निरन्तर दुखानुभव करते हुए सुदीर्थ काल व्यतील कर अपने भावानुसार मनुष्प अथवा सिप पर्याय धारण करते है।Page Navigation
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