Book Title: Chautis Sthan Darshan Author(s): Aadisagarmuni Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana View full book textPage 8
________________ १९ रूप परिणमली जो वथाओं को चारों ओर से ग्रह करता है। गोम्मटारकर्मकाण्ड में कहा भी है। देोदयेष महिओ षो आहरदि कम्मणोकम्मं । पद्रियराज्यमंतास ओम् ॥ गंगा सबसे पहले को धारण करती है। यह कर्म योग के निमिस से सचित रूप जानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोनोष, आयु, नाम, गोत्र और प्रवराय इन आठ भागों में होता है । इन आठ कर्मों का एकमा स्वभाव व कार्य नहीं है । जैसे कि निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है । आवरण-मोहन घादीजीवगुण वादणत दो | उग जामं गोदं वैयणियं तद् अधादिति ॥ केवलानंदंसणमणत विश्यिच खयिय सम्म । यिदियदि समयादि ॥ अर्थात जीव ज्ञान दर्शन दानादि श्राकिभावों का तथा मशिन प्रज्ञान अवधिज्ञान भावों का ज्ञानावरण, दर्शनाचण, मोहन य और अन्य साविक सम्यक जाति चारित्र और शाकि मन:पर्ययज्ञान और सम्यत्वादि क्षम्योपशिक चार कर्मों से घात किया जाता है । अतः इन चारों कमों की पाति कर्मसंज्ञा है अर्थात ज्ञानावरण, दर्शनावरण मोहनीय और अन्तराय जीन के सम्पूर्ण अनुजीत का नहीं होना कहलाते है तु आबू नाम गोत्र और वेदनीय इनर पर भी जोर के किसी भी अनुविगुण असाधारण रूप का अभाव नहीं होता अर्थात आयु आदि चारों द्रश्य कर्मों के उदय रहते हुए भी यह जीन केवलज्ञान, केवलदर्शन साथिसम्यकश्य, अनंत और अनन्तवीर्य का नाम करके महंत परमात्मा बन जाता है। इसीलिये इन चारों कर्मों को अघातिया कर्म कहते है । अलिक बी के स्वरूप का धान नहीं करते, परन्तु बोव के साथ जबतक उनका उदयादिरूप से सब रहता है जी तब तक मुक्त नहीं होता है। इन कर्मो की स्थित पूर्ण होते ही जीव नियम से कर्मों की कaिया टूटने पर पूर्ण स्वतंत्र होकर मुक्त या सिद्ध बन जाते हैं । इन अघातिया कर्मों का निम्मप्रकार समि करूपमयसार भणादि वृत्तम्हि जीवस्स ववद्वाणं करेदि आऊ भ मदिआदि जीव भेदं देवादी पोग्गलाण भेदंन । गदियंतरपरिणयन करेदिणाम अणेयवि । संतान कमेणानय जीवावरणस्स गोदमि दिसण्णा । उच्च णीच चरण उणीदुवे गोदं । वा कमवण वेणियं सुहसवयं सादं दुख समसादं तं वेदयदीदि वेदणिमं ॥ कर्मकाण्ड गाथा ११, १२, १३, १४ भावार्थ कर्मों के उदय से ही जिस का बस्ति हूं और दर्शनमोड़ तथा पारिष मोहनीय कर्मों के उदय जीव जीव और पर्या faf पि हो क सु 2Page Navigation
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