Book Title: Chautis Sthan Darshan Author(s): Aadisagarmuni Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana View full book textPage 6
________________ सम्पूर्ण लोक चौदह राजू ऊंचा सात राज़ चौडा और ३४३ घन राज प्रमाण है । इसके निमाण म किसी ईश्वरादि व्यक्ति विशेष का महत्व नही । यह लोक अनादि निधन है। इसका निमाण १५ (प्राकृतिक) हुआ है। घद्रव्य और लोकरचना भाकाश व्यापक तथा अनंत प्रदेशी द्वन्ध होने से अब ग्याका आधार है। इसके असंख्यात मध्यप्रदेश में असंख्पात प्रदेशी अनन्त जोव द्रव्य, अनंतानन्त पुदगल व्या असंख्यात देशों एक अन्य चमं द्वध्य, अधर्मदव्य और एक प्रदेशी असलयात काम ठप मरे हए है। समस्त द्रा अनादि काल स स्वय विविध पर्यायों में परिणमित होते हुए परिणमनदा आकाव्य में आश्रयरूप से विधमान हमार भविष्य में भी इसी प्रकार की प्राकृतिक रचना सदा विद्यमान रहेगी। इन छह द्रव्यों का यह विचित्र पाश्चतिक मेलही लोक कहा जाता है । इस लोक के निर्माता ये जीवाद छ, द्रवप ही है । इसकी रचना एवं व्यवस्था के लिये अनन्त शक्तिश ला ईश्वरादि की कल्पना तक संगत नहीं है । परमेश्वर सम्पूर्ण रागवृष और मोहरहित पूर्ण बीतरामी होते है, ने अनेक विरुद्ध कार्यो के कर्ता कसे बन सकते है । न छहों ट्रयों में परमाण और नाना आकार को धारण किये हए स्वरूप पुमदल दही भूतिक है । यह स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण गणों का धारक है। संसार में जो भी स्पर्शनादि इन्द्रियों में ज्ञान हाता है, यह सब पुदगल द्रव्य पुदगल द्रक्ष्य में भिन्न जीवाद पांचों द्रव्य इद्रियों से ग्रहण नही हात है, बे अमूर्तिक है। बौद्रव्य अक्षम द्रव्य काल द्रव्य और आकाश द्रव्य आगममाण और यनित से ही सिद्ध किये जाते है। बीच द्रव्य अनन्त है, ये क्त जीब और संसारि-जीव दो भागों में विभक्त है । मक्त जाय ताश ज्ञान दर्शन सुखमय अमर्त रुप लोकान में संस्थित है. इसलियं उनको अल्पज्ञानी जानन में असमर्थ है। हम लोगों को आगम से ही उनको जानकारी हो सकती है । जीवकी संसारावस्था मनुष्य, पशु-पक्षी, क्षुद्ध जन्तु और पश्वी, जल, अग्नि, वाय एवं अपित बनस्पतिमा जोभी दृष्टि मांचर हो रहे है, वे सब संसारी जीव मारि-जीव अनादिकाल से कमों के निमित्त से निजस्वरूप को घुस ख्य-क्षेत्र-काल-भव और भावमय सदी (पश्च पराक्तनमय) ससार में परिभ्रमण कर रहे है । प्रत्येक जीव का अनादि से स्वर्ण-पाषाण के समान कर्मों के साथ सम्बन्ध बना हुआ है। जब कामो का उदय होता है, वो जब उसके निमिस से स्वयं रागी, द्वेषी, मोही और अज्ञानी बन जाता है और जब जीव कोधादि रूप विभावमय परिणमन करता है तब जीव के विकृतभावों का निमित्त पाकर कार्माणवर्गणारूप पुदगल द्रव्य स्वयं जीव से सम्बद्ध हो जाते है। विकारी जीवों के विमावों का निमित्त मिलने पर कार्माण-वर्गणा में नियम से यिकारी पर्याय उत्पन्न होती है । पुदगल द्रव्य की इस विकारो पर्याय को ही कर्म कहते है । कर्म के निमित से स्वरूप से भष्ट हए जीव नरक, नियंच, मनव और देवगति में विविध अवस्थाओं को पुनः पुन: ग्रहण करते है और छोड़ते है । चौरासी लाख योनियों में जीव के परिभ्रमण का नाम ही संसार है । प्रत्येक जीय अनानि से सम्पूर्ण लोक में (द्रव्य-क्षेत्र-काल ) भावरूप संसार में परिभ्रमण कर से है। वस्तुतः जीप कौर कर्म के सम्पर्क को हा संसार कहते है। जीव के साथ यह अटलPage Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 ... 874