Book Title: Chautis Sthan Darshan
Author(s): Aadisagarmuni
Publisher: Ulfatrayji Jain Haryana

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Page 3
________________ भोतीस स्थान दर्शन व्यवस्था भी संक्षेप में देखती होनो। वह लोक को पश्य परिपूर्ण मानता है जीव-युद्गल धर्म प्रथमं आकाश और काल ये मूल में छः स्वयंभू है। सबस द्रव्य स्वरूप भिन्न भिन्न है । जीव सवेतन है शेष चेतन है । पुदगल मूर्तिक है शेष यमूर्तिक है। धर्म-अव मार संख्या में एक एक है काला संख्यात है। जीवों को संख्या अति है पुत्रों की जीवों से भी अत्यधिक अनंत है। सब ही अनादि अपने गुण पर्यायों में स्वयं सहभावी या है मावों रूप से व्याप्त है। हर समय में उत्पाद व्यय श्रय रूप है । इनमें से जीव और मन को छोड़कर दोष बा धर्म प्रथमं प्राकाश और काल में शुद्ध है परस्पर में से तो यहाँ एक ना ही है। रही बात जीव और पुद्गलकों की इनमें भी जिनका पुसे (सूक्ष्म या स्थूल) सम्बन्ध सदा के लिए छूटा है ऐसे अनन्त जीव हैं ये भी शुद्ध सिद्ध कहलाते हैं। वे भविष्य में पुनबंध का कारण हो विद्यमान न रहने के कारण बन्धनवद नहीं होते हैं इनका मुक्त परमात्मा विदेही मुक्तात्मा आदि श्रनन्त शुभ नामों से स्मरण किया जाता है। पुदगल द्रव्य मूर्तिक- रूपी है स्पर्श रस गंध व वे उसके मूल गुण हैं। इन गुणों से वह अभिन्न ही रहता है चाहे वह स्थूल स्कंधों के रूप में ही या सूक्ष्म परमाणुओं के रूप में हो । परमाणु अवस्था शुद्ध रूप होती है परमाणुओं की संख्या अनंत है, स्कंध स्वभावतः प्रशुद्ध होती है उनकी ख्वा ममत होते हुए भी मूल में स्कंधों की जातियां तेईस है । जिनमें से जीव के साथ सम्पर्क विशेष जिनका होता है ऐसी पांच प्रकार की स्कंध जातियां हैं जिनको १. श्राहार २. तेजस वर्गमा भाषावा४. मनोवगंगा और नोर्मवगा कहते हैं। ये उत्तरोत्तर सुक्ष्म है । अपना अपना कार्य करने में परस्पर सहयोग से समर्थ है। इनका जीव भावों के निमित्त से योग (प्रदेश कंपन) और उपयोग से (शुभाशुभ परिणति से) आवागमन अनादि से होता म्रा रहा है; और भविष्य में भी जीव समीचीन पुरुषार्थं से जब तक सदा के लिए शुद्ध नहीं होता है तब तक तो इन स्कंध पुद्गलों का आवागमन अपनी अपनी - | ११ योग्यता से होता ही रहेगा। यही जीव का संसार कहा जाता है और इस प्रक्रिया के कारण जीव ससारी कहा जाता है । समयपाय इनमें भय जीव यथायें पुरुषार्थ से विकसित रत्न से सम्पन्न होने पर संबर निर्जरा करता हुमा युक्त हो सकता है। क्षेत्र में जनदर्शन में इस प्रकार वस्तु व्यवस्था है । यह वस्तु व्यवस्था जनदर्शन को मौलिकता है और सूर्यप्रकाश में प्रत्यक्षगत वस्तु की तरह इसका स्पष्टता श्रवबोध होने पर एक जिज्ञासा सहज ही जागृत होती है कि, जीव और कर्मवगंगा तथा नोकर्म गंगा का (आहार वगणा भाषावगंगा तेजसवगंगा और मनोव का ) ग्रहण कब से करता था रहा है? क्यों करता है ? किन किन कागों से करता है ? कब तक करता रहेगा ? उनमें न्यूनाधिकता का क्या कारण है ? उससे जीव की हानि ही है? या कुछ लाभ भी है ? ग्रहण बन्द होने के उपाय कौन से हैं ? आदि प्रश्नमालिका खड़ी होती है। इसका तात्विक भूमिका पर जो विचार मूलवाही कप में किया गया है वह सदा खप्तत्व विचार कहा जाता है। उपरोक्त जीव वेतना लक्षण उपयोग स्वरूपात्मक है। स्वाद गुणविचिष्ट पुद्गल जीव रूपये विविक्षित है। शीवों का विभाव विकार रूप परिणामन के निमित होने पर तस लोहा जैसे जल का पाप करता है उस प्रकार बंड जीवो के कर्मकर्मका ग्रहण होता है वे विभाव और ग्रहण दोनों में करते हैं वे विभाग कपाय तथा प्रदेशों के साथ कर्मस्यों का संदेस्य कहा जाता है। जब कोई सम्यग्ज्ञानी महात्मा अन्तष्टि संपन्न अन्तरा मा स्वानुभूति सनाय होता है उस समय उसकी जीवनी अन्तर्या परिवर्तित होता है तब से व विशुद्ध परि ग्राम और उसके निमित से अभिनव कर्मस्कंधों का आनव-निरोध संर' कहा जाता है। पूर्व संचितों की क्रमशः क्षपणा के तिमि रूप विशुद्ध परिणाम तथा क्रम क्षपणा को 'विजय' कहते है इसी तरह वे सातिशय विशुद्ध परिणाम भी पूर्वसंचित कर्मों के सम्पूर्ण क्षपण में निर्मित है उनकी 'भावमोश' यह संज्ञा होती है तथा सदा के लिए संपूर्ण कमों का सर्व प्रकार से अलग होना द्रव्य मोक्ष' है और जोब मुक्त है।

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