________________ [8] शानियों की मण्डली थी, जिसे शैली कहते थे। 'अध्यातमी' बनारसीदास इसीके प्रमुख सदस्य थे। ज्ञात होता है अकबर की दीन इलाही प्रवृत्ति इसी प्रकार की आध्यात्मिक खोज का परिणाम थी। बनारस में भी अध्यात्मियों की एक शैली या मण्डली थी। किसी समय राजा टोडरमल के पुत्र गोवर्द्धनदास उसके मुखिया थे। बनारस में आज भी यह उक्ति बच गई है- 'सब के गुरू गोबरधनदास'। अवश्य ही अकबर और जहाँगीर के काल में आगरा और बीकानेर जैसी राजधानियों के नागरिकों में निजी विशेषताओं के आधार पर कुछ होड़ रहती होगी। भारत के मध्यकालीन नगर संख्या में अनेक हैं। प्रायः प्रत्येक प्रदेश में अभी तक उनकी परम्परा बची है। सांस्कृतिक दृष्टि से उनकी छानबीन, उनकी संस्थाओं को समझने का प्रयत्न और उनके इतिहास की बिखरी हुई कड़ियों को जोड़कर उनका सचित्र वर्णन करने के प्रयत्न होने चाहिए। वह नगर बड़भागी है, जहां के नागरिकों के मन में इस प्रकार की सांस्कृतिक आराधना का संकल्प उत्पन्न हो। बीकानेर के नाहटा की भांति चौपानेर, माण्डू, सूरत, धोलका, चन्देरी, बीदर, अहमदाबाद, आगरा, दिल्ली, बनारस, लखनऊ आदि कितने ही नगरों को अपने अपने नाहटाओं की आवश्यकता है। प्रस्तुत संग्रह में जो तीन सहस्र के लगभग लेख हैं उनमें से अधिकांश 11 वी से सोलहवीं शती के बीचके हैं। उस समय अपभ्रंश भाषा की परम्परा का साहित्य और जीवन पर अत्यधिक प्रभाव था, इसका प्रमाण इन लेखोंमें आये हुए व्यक्तिवाची नामोंमें पाया जाता है। जैन आचार्यों के नाम प्रायः सब संस्कृत में हैं, किन्तु गृहस्थ स्त्री-पुरुषों के नाम जिन्होंने जिनालय और मूर्तियों को प्रतिष्ठापित कराया, अपभ्रंश भाषा में हैं। ऐसे नामों की संख्या इन लेखोंमें लगभग दस सहस्र होगी। यह अपभ्रंश भाषाके अध्ययन की मूल्यवान् सामग्री है। इन नामोंकी अकारादि क्रमसे सूची बनाकर भाषा शास्त्रकी दृष्टिसे इनकी छान बीन होनी आवश्यक है। उदाहरण के लिये 'साहु पासड़ भार्या पाल्हण दें' में पास अपभ्रंश रूप है। मूल नाम 'पार्श्वदेव' होना चाहिए। उसके उत्तर पद 'देव' का लोप करके उसका सूचक 'ड' प्रत्यय जोड़ दिया गया, और पार्श्वके स्थान में 'पास' आदेश हुआ। इस प्रकार 'पासड' यह नाम का रूप हुआ। 'पाल्हण दे' संस्कृत 'पालन देवी' का रूप है। इसी प्रकार जसा; यह संस्कृत यशदत्त का संक्षिप्त अपभ्रंश रूप था। नामोंको संक्षिप्त करने की प्रवृत्ति अत्यन्त प्राचीन थी। पाणिनि ने भी विस्तार से इसका उल्लेख किया है और उन नियमों का विश्लेषण किया है जिनके अनुसार नामोंको छोटा किया जाता था। इनमें नामके उत्तर पदका लोप सबसे मुख्य बात थी। लुप्त पदको सूचित करने के लिये एक प्रत्यय जोड़ा जाता था, जैसे-'देवदत्त' को छोटा करने के लिये 'दत्त' का लोप करके 'क' प्रत्ययसे 'देवक' रूप बनता था। इस प्रकार के नामोंको अनुकम्पा नाम (दुलारका नाम ) कहा जाता था / नामोंको छोटा करने की प्रथा पाणिनि के पीछे भी बराबर जारी रही, जैसा कि भरहुत और सांचीमें आए "Aho Shrut Gyanam"