________________ soj वहां अभी तक किसी न किसी रूपमें जीवित हैं / इस प्रकार की व्यवस्था में परिवारोंकी गिनती लोगोंको कंठ रहती थी। घर-घरसे एक व्यक्ति को निमन्त्रित करने की प्रथा के लिए मेरठ की बोलीमें 'घर पते' यह शब्द अभीतक जीवित रह गया है। श्रीनाहटाजी के उल्लेखसे ज्ञात होता है कि लाहणपत्र के रूपमें भी बिरादरी के घरों की संख्या रखी जाती थी, किन्तु लाहणपत्र* का यथार्थ अभिप्राय हमें स्पष्ट नहीं हुआ। ग्रन्थ में संगृहीत लेखों को पढ़ते हुए पाठक का ध्यान जैन संघ की ओर भी अवश्य जाता है। विशेषतः खरतरगच्छ के साधुओं का अत्यन्त विस्तृत संगठन था। बीकानेर के राजाओं से वे समानता का पद और सम्मान पाते थे। उनके साधु अत्यन्त विद्वान् और साहित्य में निष्ठा रखनेवाले थे / इसी कारण उस समय यह उक्ति प्रसिद्ध हो गई थी कि 'आतम ध्यानी आगरै पण्डित बीकानेर'। इसमें बीकानेर के विद्वान् यतियों का उल्लेख तो ठीक ही है, साथ ही आगरे के 'आध्यातमी संप्रदाय का उल्लेख भी ध्यान देने योग्य है / यह आगरे के * 'लाहण' शब्द संस्कृत लभू धातु से बना, लभ से लाम संज्ञा हुई / लाभ का प्राकृत और अपभ्रंश रूप 'लाह' है। उसके 'ण' प्रत्यय लगने से लाहण' शब्द हो गया। जयपुर, दिल्ली की ओर लाइणा कहते हैं गुजरात आदि में लाहणी शब्द प्रचलित है। महाकवि समयसुन्दर ने अपनी कल्पलता' नामक कल्पसूत्र वृत्ति में 'लाहणी' का संस्कृतरूप 'लमनिका' शब्द लिखा है यतः-“गच्छे लंभनिका कृता प्रतिपुरे रुक्मादिमेक पुनः" / 'लाहण' शब्द की व्युत्पत्ति से फलित हुआ कि लाभ के कार्य में इस शब्द का प्रयोग होना चाहिए अपने नगर, गांव, या समग्र देश में अपने स्वधर्मियों या जाति के घरों में मुहर, रुपया, पैसा मिश्री, गुड़, चीनी, थाली, चुंदड़ी इत्यादि वस्तुओंको बाँटने की प्रथा प्राचीनकाल से चली आ रही है ! यह लेनेवाले को प्रत्यक्ष लाभ तथा देनेवाले को फलप्राप्तिरूप लाभप्रद होने से इसका नाम लाइण सार्थक है। पूर्वकालके धनीमानी प्रभावशाली श्रावकों, संधपतियों के जीवनचरित्र, शिलालेख ग्रंथ-प्रशस्तियों में इसके पर्याप्त उल्लेख पाये जाते हैं। आज भी यह प्रथा सर्वत्र वर्तमान है। बीकानेर में इस प्रथा ने अपना एक विशेष रूप धारण कर लिया है। बीकानेर के ओसवाल समाज में प्रायः प्रत्येक व्यक्ति पूर्वकाल में 'लाहण' करना एक पुण्य कर्तव्य समझकर यथा शक्ति अवश्य किया करता था। मृत्यु के उपरान्त अन्त्येष्टि के हेतु उसी व्यक्ति की श्मशान यात्रा मंडपिका ( मंढी युक्त निकाली जाती थी जिसकी लाहण-लावण हो चुकी हो। लाहण की प्रथा यों है कि जो व्यक्ति अपनी या अपनी पत्नी आदि की 'लादण' करता हो उसे प्रथम अपनी गुवाड़ व सगे सम्बन्धियों में निमंत्रण देना होता है फिर गुवाड़ या घर के दस पाँच सदस्य मिलकर सत्ताइस गुवाड़ में 'टोली' फिरते हैं, तीसरी टोली में रुपयों की कोथली साथ में रहती है। प्रत्येक मुहल्ले की पंचायती में जाकर जितने घरों तथा बगीची, मन्दिर आदि की लाहण लगती हो जोड़कर रुपये चुका दिये जाते हैं। इन रुपयों का उपयोग पंचायती के वासण-बरतन, सामान इत्यादि में किया जाता है। संध्या समय घर के आगे या चौक में सभी आमंत्रित व्यक्तियों की उपस्थिति में चौधरी (जाति-पंच) के आने पर श्रीनामा डालकर लाइणपत्र लिखा जाता है फिर सगे-संबंधियों की पारस्परिक मिलनी होने के बाद 'लाइण उठ जाती है। --सम्पादक "Aho Shrut Gyanam"