Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 05
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
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पञ्चमी भागः
thereमकरणम् ]
सहजने और बरनेकी छालका काथ जवाखार मिला कर पीने से कफज अश्मरि शीघ्रही नष्ट हो जाती है ।
(७२२१) शित्वगादिकषायः
( ग. नि. । कृम्य. ७ ) शिग्रुत्वक्त्रिफलाभ्यां तु कृतः क्वाथो निषेवितः। जठरस्थान क्रिमीन क्षिममुद्धरत्यविचारतः ॥ सहजनेकी छाल और त्रिफलाका काथ सेवन करने से उदरके कृमि नष्ट हो जाते हैं ।
(७२२२) शिग्रुमूलक्वाथः
( यो. र.; वृ. नि. र. | अश्मर्य. ; वं. से. । अश्म. ) क्वाश्च शिग्रुमूलोत्थः कदुष्णाश्मरिपातनः । क्षीरामभुम्बर्हिशिखामूळे वा तन्दुलाम्बुना ॥
सहजने की छालका मन्दोष्ण काथ पीनेसे अमर निकल जाती है ।
मयूरशिखाकी जड़ को चावलोंके पानीके साथ सेवन करनेसे भी अमरि नष्ट हो जाती है।
पथ्य- दूध भात ।
(७२२३) शिग्रुमूलादिक्षारः
(ग. नि. । उदरा. ३२ ) शिग्रुमूलरसो वह्निः सैन्धवं ब्रह्मक्षकः । क्षारभक्षणतोऽमीषां याति सर्वोदरं शमम् ॥
सहजनेकी जड़के रस में चीता, सेंधा और पलाशका क्षार मिला कर सेवन करने से समस्त प्रकार के उदर रोग नष्ट होते हैं ।
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(७२२४) शिघुमूलादियोगः
( वृ. मा. व. से. । विद्रध्य.)
शिग्रुमूलं जले धौतं जलपिष्टं प्रगालयेत् । तसं मधुना पीला हन्त्यन्तर्विद्रधिं नरः ॥
११
सहजनेकी जड़को जलसे धो कर पानीके साथ पीस लें और कपड़ेसे निचोड़ कर र निकालें |
इसमें शहद मिला कर पीने से अन्तर्विद्रधि नष्ट होती है ।
(७२२५) शिवादिकषायः
(वै. जी. । विलास ४ ; वृ. नि. र. । विद्र. ) शिग्रुदीप्यवरुणद्वियामिनी
कुञ्जराशनकृतः कषायकः । बोल चूर्णसहितोन्तर स्थितं
विद्रधिं प्रशमयेदसंशयम् ॥ सहजनेकी छाल, अजवायन, बरनेकी छाल, दारूहल्दी और पीपलवृक्ष (अस्वस्थ ) की छाल समान भाग ले कर काथ बनावें ।
| हल्दी,
इसमें बोलका चूर्ण मिला कर सेवन करने से अन्तर्विद्रधि अवश्य नष्ट हो जाती है।
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(७२२६) शिरीषमूलादिकल्कः ( ग. नि. | अर्शो. ) 1
शिरीषमूलं पुष्पं च शाल्मले स्तिनिशस्य च । निर्यासश्च पलाशस्य वदर्याः ककुभस्य च ॥ रोत्रं शाल्मलिनियसः कटुङ्गस्तण्डुलीयकः । मधुकार्जुनपुष्पाणि धातकीरोधयोरपि ॥