Book Title: Bhairava Padmavati Kalpa
Author(s): Mallishenacharya, Shantikumar Gangwal
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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बाल सूर्य के समान जिसका वर्ण है, सिन्दुर वर्ण के समान जिसकी प्रभा है, मुख जिसका कमल के समान है, तीन नेत्रों से सहित है हाथों में जिसके क्रमशः, वरदान, अंकुश, नागपाश और दिव्य फलवाली अंकित है तथा जपने वाले मंत्री को नित्य ही फल को देने वाली महादेवी पद्मावती का ध्यान करे ।।१२।।
परिज्ञायांशकं पूर्व साध्यसाधकयोरपि । मत्रं निवेदयेत् प्राज्ञो व्यर्थं तत्फलमन्यथा ॥१३॥
[संस्कृत टीका]-'परिज्ञाय' सम्यग् ज्ञात्वा । किम् ? 'अंशकं' मात्रांशकम् । 'पूर्व प्राक् । कयोः ? 'साध्यसाधकयोः' साध्य:-मन्त्रः, साधकः मन्त्री तयोः साध्यसाघकयोः। 'अपि' निश्चयेन । 'मन्त्रं निवेदयेत्' मन्त्रोपदेशं कुर्यात् । 'प्राज्ञो' श्रीमान् । 'अन्यथा' अंशकज्ञानामावे। 'तत्फलं' तस्य मन्त्रस्य फलम् । 'व्यर्थ' निरर्थक भवेत् ॥१३॥
[हिन्दी टीका]-मंत्रवादी सत्पुरुष को मंत्र और मंत्री के अंगों को जानकर अर्थात् साध्य और साधक के अंशों को जानकर मंत्र का दान करें, अथवा स्वयं प्रयोग में लावे । कारण कि अंश और अंशी के ज्ञान के शिवाय जपनेवाले मंत्र का फल निरर्थक होता है । यहाँ साध्य माने मंत्र और साधक माने जप करनेवाला (मंत्रसिद्ध करने वाला) है ।।१३।।
साध्य और साधक के प्रशगणने की क्रिया साध्यसाधकयो मानुस्वारव्यञ्जनस्वरम् । पृथक कृत्वा क्रमात् स्थाप्यमूधिः प्रविभागतः ॥१४॥
[संस्कृत टीका]-साध्यसाधकयोनाम' साध्यो मन्त्रः साधको मन्त्री तयोनमि । 'अनुस्वार' 'व्यंजन' ककारादि वरन् 'स्वर' प्रकारादि स्वरान् । ।पृथक् कृत्वा' पृथग विश्लेष्य। 'कमात् स्थाप्यम्' साध्यसाधक परिपाट्या संस्थाग्यम् । कथम् ? 'अधिः प्रविभागतः' साध्यनाम ऊर्ध्वतः साधकनाम अधः कृत्वा अनेन प्रविभागक्रमेय स्थापयेत् ॥१४॥
|हिन्दी टीका-मंत्रसाधन करने वाले के नामाक्षर और मंत्र के नामाक्षरों को पृथक्-पृथक स्थापन करें। यानी नाम और मंत्र अक्षरों के अनुस्वार, व्यंजन और स्वरों को अलग-अलग करके ऊपर मंत्र के और नीचे मंत्री के नामाक्षरों को कम से रखें ॥१४॥