Book Title: Bhairava Padmavati Kalpa
Author(s): Mallishenacharya, Shantikumar Gangwal
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti

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Page 202
________________ ह्रौ इति बोजद्वयात् । 'घेघेति' घे घे इति पदं जपित्वा । केन ? 'मन्त्रिणा' मन्त्रवादिना ॥३॥ ___ मन्त्रोद्धार :-- ग्लौ ह्रौं घे घे । इति प्रतिपक्षाय नीलध्यानेन युक्तविषदानमन्त्र । [हिन्दी टीका]-शत्रु को बिष देते समय ग्लौं क्रौं घे घे, मंत्र से मंत्रित करता हुआ नीले वर्ण का ध्यान करे, और भक्षरण करा देवे ।।३८।। विषनाशन मंत्र मुनिहयगन्धाघोषा बन्ध्या कटम्बिका कुमारी च । त्रिकटुककुष्ठेन्द्रयया ध्नन्ति विष नस्यपानेन ॥३६।। [संस्कृत टीका]-'मुनिः' अगस्तिः। 'हयगन्धा' अश्वगन्धा । 'धेष' देवदालो (देवदारू)। 'वन्ध्या कर्कोटी । 'कटुतुम्बिका' कटु कालावुका । 'कुमारी' गृह कन्या । 'त्रिकटुकं' चूषणम् । 'कुष्ट म्' त्वक । 'इन्द्रयदा' कुटजबीजम् । 'धनन्ति' नाशयन्ति । 'विष' स्थावरजङ्गमविषम् । 'नस्थपानेन' एतदोषधानां नश्नेन पानेन सर्व विषं नश्यति ॥३६॥ [हिन्दी टीका-अगस्त्य, असगंध, घोषा (तोरई) वन्ध्या (कर्कोटी) कड़वी तुम्बी घृतकुमारी, त्रिकटु (सोंठ, पीपल, कालीमिरच) कूट और इन्द्र जी को सुंघाने और पिलाने से स्थावर जंगम सभी प्रकार के विष का नाश हो जाता है ।।३।। द्विपमलभूतच्छस्त्रं रविदुग्धं श्लेष्मतरूफलोपेतम् । वृश्चिकविषसकामं बदरीतरूदण्डसंयोगात् ॥४०॥ [संस्कृत टोका]-'द्विपमल मूतच्छत्त्रं' विरदमलोद्भूतच्छत्रम् । 'रविधुग्धं' मार्तण्डक्षीरम् । 'म्लेष्मतरूफलोपेतम्' श्लेष्मातक फलचिक्यान्वितम्। 'बश्चिक विषोत्तारणं अन्येषां विष संक्रामम् । 'बदरीतरुदण्ड संयोगत् । पुष्याः अध्यधिोगत कण्टक द्वयान्वित बदरी शलाकां गृहीत्वा तदोषधत्रयलेपं कृत्वा ऊर्यकपट केनोत्तार्य अधोगतकण्टकेन अन्योऽन्यं संक्रामति ।।४।। हिन्दी टीका]-हार्थी के मल (लीद) से उत्पन्न होने वाले छत्र बनस्पति को, प्राकडे का दूध और बड़गुंद के अन्दर से निकलने वाला चिकरणा पदार्थ इन तीनों प्रोषधियों का लेप करके, पुष्यनक्षत्र में ग्रहण किया हुआ जिसके ऊपर नीचे

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