Book Title: Bhairava Padmavati Kalpa
Author(s): Mallishenacharya, Shantikumar Gangwal
Publisher: Digambar Jain Kunthu Vijay Granthamala Samiti
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( २४ ) दिक्कालमुद्रासन पल्लवानां भेदं परिज्ञाय जपेत् स मन्त्री । न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रं कुर्वन सदा तिष्ठतु जाप्यहोमम् ॥४॥
[संस्कृत टीका]-'दिक्काल मुद्रासनपल्लवानां' दिक् च कालच मुद्रा च आसनं च पल्लवश्च दिक्काल मुद्रासनपल्लवाः तेषां विवकालमुद्रासन पल्लवानां, भेदं विवरगं, 'परिज्ञाय' सम्यग् ज्ञात्वा, स 'मन्त्री' मन्त्रवादी जपेत् 'जापं' कुर्यात् । 'न चान्यथा सिध्यति तस्य मन्त्रम्' अन्यथा दिक्कालावि भेद परिज्ञानाभावे तस्य मन्त्रिणः 'मन्त्रं न सिध्यति' सिद्धि न प्राप्नोति । 'कुर्वन् सदा तिष्ठतु जाप्यहोम' जाप्यहोमं कुर्वन् सन् सवा तिष्ठतु परं न सिध्यति ॥४॥
[हिन्दी टीका-मंत्रवादी दिशा, काल, मुद्रा, आसन और पल्लवों के भेदों को जानकर ही जपादि प्रारंभ करे, अगर इनका ज्ञान प्राप्त नहीं किया तो कितनी भी मंत्राराधना करे और होमादिक क्रिया करे फिर भी मंत्रवादी को मंत्रों की सिद्धि नहीं हो सकती है, इसलिये प्रथम इनका ज्ञान करना परम आवश्यक है ।।४।।
वश्याकृष्टि स्तम्भननिषेध बिष चलनशान्तिकं पुष्टिम् । कुर्यात् सोमय मामरहराग्निमरवन्धिनिऋति विग्वदनः ॥५॥
[संस्कृत टीका]-'वश्यावृष्टिस्तम्भननिषेध विद्वेषचलन शान्तिकं पुष्टिम्' एतानि कर्माणि । 'सोमयमामरहराग्नि मरुवन्धिनिऋतिदिग्वदनः' । 'सोम' उत्तराभि मुखेन वश्यकर्म । 'यम' दक्षिणाभिमुखेन 'प्राष्टि' प्राकर्षण कर्म । 'अमर' पूर्वा भिमुखेन स्तम्भन कर्म । 'हर' ईशानाभिमुखेन निषेध कर्म । 'अग्नि' अग्निविङ्मुखेन विद्वेषकर्म । 'मरुत्' वायव्यदिङ्मुखेन 'चलन' उच्चाटन कर्म । 'अब्धि' पश्चिमाभिमुखेन 'शान्तिक' शान्ति कर्म। नैऋति दिग्वदनः' नैऋत्याभिमुखेन पौष्टिक कर्म । इति दिग्यदनो भूत्वा वश्यादि कर्माणि कुर्यात् ॥५॥
[हिन्दी टीका]-वशीकरण करने के लिये उत्तराभिमुख होकर मंत्र कर्म करे । दक्षिण दिशा में मुंह करके आकर्षण कर्म करें। स्तम्भन कर्म करने के लिये पूर्व दिशा में मुंह करके मंत्रजाप्य करे । ईशान दिशा में मुंह करके निषेधकर्म के लिये जाप्य करें। प्राग्नेय दिशा में विद्वेषण कर्म करना चाहिये । उच्चाटन कर्म करने के लिये बायध्य कोण में मुंह करना चाहिये । पश्चिम दिशा में मुंह करके शांतिकर्म करे । पौष्टिक कर्म करने के लिये नैऋत्य दिशा में मुंह करके मंत्रजाप्य करे ।।५।।