Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 01
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
View full book text
________________
[ ५ ] भाँति आपने भी प्रतिज्ञा करछी कि यदि मेरी वेदना चली जावे तो मैं अवश्य दीक्षा ग्रहण करूंगा । कारण संसार में सर्व स्वार्थ के सम्बन्धी हैं मेरे इतना परिवार होने पर भी यह वेदना मुझे अकेले ही को भोगनी पड़ती है जब इस भव में सब उत्तम सामग्री के सद्भाव भी श्रात्मकल्याण न किया जाय और उल्टा कर्मबंधन किया जाता है तो यह भी भवान्तर में मुझे अकेले ही को भोगने पड़ेंगे अतः निश्चय कर लिया कि वेदना शान्त होते ही दीक्षा अवश्य लूंगा। रात्रि किसी प्रकार व्यतीत की। सुबह होते ही एक ब्राह्मण भिक्षा के लिये आया और गयवरचंद को चौपाई पर पड़ा देख कर पूछा क्यों गयवरचंद क्या तकलीफ है ?
ने जहां दर्द था अपना शरीर बतलाया । विप्र ने कहा कि मेरा कहा हुआ इलाज करो जल्दी चंगे हो जाओगे | पर आपके पास इलाज करने वाला कोई नहीं था इसलिये आपने कहा विप्रदेव ! आज आप भिक्षा के लिये प्राम में नहीं जाय मैं ही आपको सन्तुष्ट कर दूंगा आप ही मेरा इलाज कीजिये बस ब्राह्मण ने एक पट्टी तैयार कर के दर्द पर बांध दी लगभग चार बजे दर्द फूट कर अन्दर से कोई सेर भर बिगड़ा हुआ रक्त निकल गया । दूसरी पट्टी बांधी तो बिलकुल शांत रात्रि में निद्रा भी आ गई। पांच साव दिनों में तो हलने चलने भी लग गये । ब्राह्मणदेव को सर्वथा सन्तुष्ट कर के घर भेज दिया। श्रापको विश्वास हो गया कि मेरी दीक्षा लेने की प्रतिज्ञा ने ही मुझे श्रारोग्य बनाया है बस आप दीक्षा लेने की तैयारी करने लग गये । आप, अपने मकान में जहां भोगविलास की सामग्री से खूब सजा हुआ था उसको हटा कर उसके स्थान योग सामग्री का संग्रह करने में तत्पर हो गये और ग्राम में भी इस बात की थोड़ी बहुत चर्चा भी फैलने लग गई। इतना ही क्यों पर वि० सं० १९५८ चैत्रवदी आठम को घर छोड़ने का मुहूर्त्त भी निश्चय कर लिया और ओधा पात्रा भी मंगवा लिया । जब इस बात की खबर सेलावस में पहुंची तो राजकु वारी अपने काकाजी के साथ वीसलपुर में श्रई । वहाँ श्राकर अपना घर देखा तो साधुओं का स्थान ही दीख पड़ा । मोह के बस बहुत कुछ कहा सुना किया एवं बहुत कुछ समझाया पर आपने एक भी नहीं सुनी उल्टे उपदेश करने लग गये कि आप भी दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करो। इधर मुताजी को भी खबर पड़ी उन्होंने भी बहुत कुछ समझाया पर आप अपने विचार पर अटल ही रहे । राजकुवारी ने कहा कि आप दीक्षा लेंगे तो मैं घर में किसके पास रहूँगी अतः मैं भी दीक्षा लेने के लिये तैयार हूँ । पर मेरे उदर में गर्भ है इसका क्या इन्तजाम होगा यह सुन कर गयवरचन्द को कुछ विचार तो अवश्य हुआ पर आखिर में सोचा कि के वर्तत १ श्रेणिक राय हू छुरे अनाथी निर्ग्रन्थ । तीणे मैं लीघो लीघो साधुजी नो पन्थ श्रेणिक ० टेर । इा कसुबी नगरी में वसेरे मुझ पिता परिगल धन । परिवारे पुरो परिवर्योरे हु छु तेनो पुत्र रत्न | श्रेणिक || २ || एक दिवस मुझे वेदनारे, उपनी मो न खमाय ! मात पिता झूरी रहायारे । पण किण भी ते न लेवय । श्रेणिक || ३ || गोरडी गुण मणि ओरड़ीरे । मोरडी अबलानार । कोरडी पिडा में सहीरे कोणन किधीरे मोरडी सार ॥ श्र० ४ ॥ बहुराजवैद्य बोलावियारे, किधा कोडी उपाय, बावना चन्दन चरचियारे पण तो ही रे समाधि न थाय ॥ श्र० ५ || जगमें को कहने नही रे ते भणी हू रे अनाथ, वीतरागना धर्म सरीखो । नहीं कोड़ बीजोरे मुक्ति नो साथ ॥ श्र० ६ ॥ जो मुझे वेदना उपशमेरे, तो लेउ संजमभार, इस चिन्तवतां वेदनागहरे, व्रत लीघा मै हर्ष अपार ॥ श्र० ७ ॥ करजोडी राजागुण स्तवेरे, धन्य धन्य यह अणगार, श्रेणिक समकित पामियोरे, बान्दी पहुतोनीज नगर प्रकार ॥ श्र० ० ८ || मुनि अनाथी गावतारे, टुटेकर्म नी कोड़ गणि समयसुन्दर तेहनारे, पायवन्दे कर जोड़ रे ॥ श्र० ९ ॥
I
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org