Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 11
________________ प्रस्तावना १. प्रतियोंका परिचय भगवती आराधना या मूलाराधनाका प्रथम संस्करण पं० सदासुखदासजीको ढुंढारी भाषाकी टीकाके साथ सन् १९०९ में प्रकाशित हुआ था। उसका दूसरा संस्करण १९३२ में श्री अनन्तकीर्ति ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित हुआ था। किन्तु विजयोदया टीका, मूलाराधनादर्पण और आचार्य अमितगति रचित संस्कृत पद्योंके साथ उसका प्रथम संस्करण शोलापुरसे १९३५ में प्रकाशित हुआ था। उसका सम्पादन भण्डारकर रिसर्च इन्स्टीटयूट पूनासे प्राप्त प्रतियोंके आधारपर पं० जिनदास पार्श्वनाथ शास्त्रीने हिन्दी अनुवादके साथ किया था । हमने उसी संस्करणको आधार बनाकर उसका पुनः सम्पादन तथा हिन्दी अनुवाद किया है। उसके सम्पादनके लिये हस्तलिखित प्रतियोंकी खोज करते हुए हमें दो प्रतियाँ शुद्ध प्राप्त हो सकी । उनका परिचय इस प्रकार है अ प्रति-यह प्रति आमेर शास्त्रभण्डार जयपुर की है जो श्री महावीरजी अतिशयक्षेत्रके महावीर भवन जयपुरसे डा० कस्तूरचन्द काशलीवाल द्वारा प्राप्त हुई थी। प्रतिका लेख अतिसुन्दर और स्पष्ट है। यद्यपि कागज मटमैला हो गया है और छूनेसे टूटता है किन्तु लिपिपर समयका प्रभाव नहीं पड़ा है। प्रति प्राचीन और प्रामाणिक प्रतीत हुई। पृष्ठ संख्या ४९८ है । प्रत्येक पत्रमें १० पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्तिमें ४०-४२ अक्षर हैं। दूसरी आ प्रतिसे उसमें वैशिष्ट्य है अनेक पाठभेद हैं । इसमें गाथा संख्या २१४८ है। पूर्ण संख्या सौ पूरी होनेपर पूर्ण संख्या दी है और आगे एक दोसे प्रारम्भ किया है । इसका लेखनकाल सम्बत् १७६० है यथा 'सम्वत् १७६० वर्षे माघमासे कृष्णपक्षे दशम्यां तिथी गुरुवासरे श्री संग्रामपुरमध्ये लिखितमिदम् ।' वि० सं० १९१५ में पण्डित जगन्नाथने इसे भट्टारक देवेन्द्रकीतिको भेटमें दिया था । _ 'आ'-प्रति-यह प्रति धर्मपुरा दिल्लीमें स्थित लाला हरसुखराय शुगनचन्दके मन्दिरके दि. जैन सरस्वती भण्डारसे लाला पन्नालालजी अग्रवाल द्वारा प्राप्त हुई थी। इसका नम्बर ऊ ४ (क) है । पृष्ठ संख्या ३१२ है। प्रत्येक पत्रमें १५ पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्तिमें ४५ अक्षर हैं। गाथा संख्या २१४८ है । इसमें भी जहाँ संख्या सौ पूरी होती है वहाँ पूर्णाङ्क देकर आगे एक दोसे प्रारम्भ किया है । साधारणतया शुद्ध है किन्तु संयुक्त अक्षर स्पष्टरूपसे नहीं लिखे गये हैं। इसका लेखनकाल १८६३ सम्वत् है । यथा सम्वत् १८६३ मिति फाल्गुन शुक्लपक्षे तृतीया तिथौ सनिवासरे जैनाश्रमिणा तुलसीरामेण लिलेष । श्रीरस्तु । इस तरह इन दो प्रतियोंका ही पूर्णरूपसे उपयोग हो सका है। इनके सिवाय भी जिन प्रतियोंका उपयोग किया जा सका उनका परिचय भी दिया जाता है। प्रति टोडारायसिंह-हम सन् ७५ में दशलाक्षणीपर्वमें अजमेर गये थे। केकड़ीके पं० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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