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भगवती आराधना स्थानांग सूत्र १७१ में वस्त्र धारणके तीन कारण कहे हैं--लज्जा, शरीरका अंग विकृत होना, परीषह सहनमें असमर्थता।
इस प्रकारसे आगमानुसार भो विशेष अवस्थामें ही वस्त्र को अनुज्ञा थी। किन्तु उत्तरकाल के ग्रन्थकारों और टीकाकारोंने इस प्रकारके वचनोंको जिनकल्पका करार देकर तथा अचेलका अर्थ बदल कर मूल मार्गको तिरोहित ही जैसा कर दिया। जैसे जीतकल्प सूत्रमें आचेलक्य का अर्थ करते हुए कहा है--
दुविहा होति अचेला संताचेला असंतचेला य ।
तित्थगरऽसंतचेला संताचेला भवे सेसा ।।१९७५।। अचेल दो प्रकारके होते हैं एक वस्त्रके रहते हुए अचेल और एक वस्त्ररहित अचेल । तीर्थकर वस्त्ररहित अचेल है । शेष सब वस्त्र सहित अचेल हैं। 'परीषहोंमें एक नाग्न्य परीषह है । निरुक्तमें नाग्न्यका अर्थ इस प्रकार किया है--
यो हताशः प्रशान्ताशस्तमाशाम्बरमुचिरे।
यः सर्वसङ्ग सन्त्यक्तः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ अर्थात् जो सर्व परिग्रहसे रहित है उसे नग्न कहते हैं । टीकाकारोंने अल्प वस्त्रधारीको भी नग्न कहा है।
आगममें परिग्रहका लक्षण मूर्छा-ममत्व भाव कहा है। इसकी ओटमें परिग्रह रखकर भी यह कहा जाता है कि हमारा ममत्व भाव नहीं है अतः हम अपरिग्रही हैं।
__ अराधना और उसकी टोकामें परिग्रह भावका विस्तार से निराकरण किया है। आजकल दिगम्बर परम्परामें भी साधु मात्र शरीरसे तो नग्न रहते हैं किन्तु अन्तरंगसे नग्न तो विरल हैं। परिग्रहसे ममत्व छूटना बहुत कठिन है। वही संसारका कारण है। अतः यदि साधू बनकर भी परिग्रहका मोह नहीं छूटता तो साधुपना ही विडम्बना है। यह आवश्यक नहीं है कि सामर्थ्य न होते हुए भी साधु बनना ही चाहिये । साधु पद स्वयं एक साधना है । उसकी साधना गृहस्थाश्रममें की जाती है। गहस्थाश्रम उसीके लिये हैं। जो पांच अणव्रत पालनका भी अभ्यास नहीं करते वे महाव्रती बन जाते हैं । शरीरकी नग्नताको ही दिगम्बरत्व समझ लिया गया है । दिगम्बरत्वका वेष धारण करके तदनुसार आचरण न करनेसे क्या गति होती है, इसे भी शायद नहीं जानते हैं। सब अपनेको स्वर्गगामी मान लेते हैं। किन्तु गृहस्थाश्रमका पाप जो फल देता है। मुनिपदका पाप उससे भयानक फल देता है। अतः मुनिपद धारण करते हुए सबसे प्रथम उस महान् पापसे डरना चाहिए।
___ आचार्य शिवार्य महाराजने और उनके अन्यतम टीकाकार अपराजित सूरिने आगम ग्रन्थों को आंख बन्द करके स्वीकार नहीं किया यह प्रसन्नताकी बात है। ऐसा प्रतीत होता है कि उनके आगमोंकी वाचना वलभी वाचनासे, जो श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मानी जाती है अवश्य भिन्न होगी। क्योंकि टीकाकारने जो उद्धरण दिये हैं वे आजके आगमोंमें कम ही मिलते हैं।
'जिस सम्प्रदायका पन्द्रहवीं शताब्दी तक पता लगता है और जिसमें शाकटायन और
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