Book Title: Bhagavati Aradhana
Author(s): Shivarya Acharya
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 8
________________ प्रधान सम्पादकीय प्रस्तुत भगवती आराधना ग्रन्थ जैन साधुके आचारसे सम्बद्ध एक प्राचीन ग्रन्थ है और उसकी टीका विजयोदेया भी इस दृष्टिसे अपना विशेष महत्त्व रखती है । ये दोनों एक तीसरे जैन सम्प्रदायके माने जाते हैं जो न दिगम्बर था और न श्वेताम्बर । दिगम्बर सम्प्रदाय आगम ग्रन्थोंको मान्य नहीं करता और श्वेताम्बर सम्प्रदाय साधुओंके वस्त्र पात्रवादका समर्थक ही नहीं किन्तु पोषक है। किन्तु इस ग्रन्थ और इसकी टीकासे स्पष्ट प्रतीत होता है कि एक ओर इनके रचयिता आगम ग्रन्थोंको मान्य करते हैं तो दूसरी ओर वे वस्त्र पात्रवादके घोर विरोधी प्रतीत होते हैं । इससे यह ध्वनित होता है कि वे ऐसे सम्प्रदायके अनुयायी हैं जो न आगम ग्रन्थोंको अमान्य ही करता है और न वस्त्रपात्र वादको स्वीकार करता है। ऐसा सम्प्रदाय यापनीय ही हो सकता है। किन्तु इस ग्रन्थमें न तो स्त्रीमुक्तिका ही समर्थन है और न केवली भुक्तिका प्रत्युतः अन्तमें स्त्रीसे भी वस्त्र त्याग करानेको इसमें चर्चा है । और यापनीय संघकी ये दोनों मान्यताएं बतलाई जाती हैं। अतः हम नहीं मान सकते कि इस ग्रन्थके कर्ता और टीकाकार सवस्त्रमुक्ति या स्त्री मुक्तिके समर्थक होंगे। इसमें आगत गाथा नं० ४२३ ऐसी गाथा है जो दिगम्बर मूलाचारमें भी आती है और श्रेताम्बरीय आगम साहित्यमें भी आती है। उसमे साधुके दस कल्प बतलाये हैं । कल्प कहते हैं करणीय आचारको । उसमे प्रथम ही कल्प है आचेलक्य । चेल कहते हैं वस्त्रको और अचेलक कहते हैं वस्त्र रहितको 1 इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने आगमोंके प्रमाण देकर साधुओंके नग्न रहने का ही समर्थन किया है। आचारांग सूत्रमें (१८२) में कहा है 'जो साधु अचेल रहता है उसे यह चिन्ता नहीं होती मेरा वस्त्र जीर्ण हो गया मैं वस्त्रकी याचना करूंगा । उसे सीनेके लिये धागा और सुईकी याचना करूंगा। उसे सीऊंगा। ......." वह अचेलकपनेमें लाघव मानता है, आदि' आचारांग सूत्र २०९ में कहा है 'शीत ऋतु बीत जानेपर, गीष्मऋतु आनेपर यदि वस्त्र जीर्ण न हो तो उन्हें कहीं स्थापित कर दे। अथवा सान्तरोत्तर हो जाये या ओमचेल या एक शाटक या अचेल हो जाये ।' टीकाकारने सान्तरोत्तरका अर्थ किया है—'सान्तर है उत्तर-प्रावरणीय जिसका' अर्थात् शोतकी आशंकासे वस्त्रको त्यागता नही है, कभी ओढ़ लेता और कभी उतारकर पार्वमें रख लेता है। ओमचेलका अर्थ किया है-धीरे धीरे शीतके जाने पर द्वितीयादि वस्त्रको त्याग एकशाटक हो जाये । अथवा शीत बिल्कूल चले जाने पर उसे भी छोड़कर अचेल हो जाये। सूत्र २१ में कहा है--निग्रन्थ श्रमणोंके लिये पांच कारणोंसे अचेलपना प्रशस्त है-प्रतिलेखना अल्प होती है, स्वाभाविक रूप है, तप होता है लाघव है, विपुल इन्द्रिय निग्रह होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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