Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 7
________________ ( ३ ) चलितकीचि मुनिके शिष्य हैं। और लठितकीर्ति भीमनन्तकीचि आचार्यके शिष्य हैं। इन महानुभावोंका संसारमें कम अवतार हुआ यह निश्चय करना तो जरा कठिन है। परन्तु भद्रबाहु चरित्रमें श्रीरत्ननन्हीनें एक नगई लिखा है कि - मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपञ्चशतेऽन्दानामतीते मृणुतापरम् ॥ लुकामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरे ख्याते विचाजितनिर्जरे ॥ अणलिपत्तने रम्ये प्राग्वाट कुलजो मवत् । लुकाभिषो महामान वेतांशुकमताश्रयी ॥ दुष्टात्मा दुष्टभावेन कुपितः पापमण्डितः । तीत्रमिध्यात्वपाकेन लुङ्कामतमकल्पयत् ॥ अर्थात् -- महाराज विक्रम की मृत्यु के बाद १५२७ वर्ष बीत जाने पर गुजरात देशके अणहिल नगरमें कुलुम्बी वंशीय एक महामानी लंका नामक श्वेताम्बरी हुआ है। उसी दुष्टने तीच मिध्यात्वके उदसे . कामत ( इंडियामत) का प्रादुर्भाव किया। यह मत प्रतिमाओं को नहीं मानता है। मन्थकारके इस लेखसे यह सिद्ध होता है कि विक्रम सं० १५२७ के बाद वे हुये हैं । क्योंकि तभी तो उन्होंने अपने प्रन्यमें ढूंढियों का . उडेख किया है । परन्तु यह खुलासा नहीं होता कि उनके अवतारका निश्चित समय क्या है ? सुदर्शन चरित्रके रचयिता एक जगह रांकीचिका उलेख करते हैं---- मूलसङ्घाग्रणीर्नित्यं रनकीर्त्तिगुरुर्महान् । नत्रयपवित्रात्मा पायान्मां चरणाश्रितम् ॥ यद्यपि भद्रबाहु चरित्रके रचयिताने अपना नाम रतनन्दी लिखा है परन्तु माचर्य नहीं कि उन्हें उनसे पीछेके सुनियोंने रमकोचि नामसे भी लिखे हों। क्योंकि रतनन्दी और रनकीर्तिक समय में विशेष

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