Book Title: Bhadrabahu Charitra
Author(s): Udaychandra Jain
Publisher: Jain Bharti Bhavan Banaras

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Page 6
________________ हां यदि कमी है तो उन प्राचीन महर्षियोंके वास्तविक ऐतिहासिक वृत्तान्त की । यदि जैन समाज इस बात पर लक्ष देगा और इस विषयको सोजमें जी जानसे लगेगा तो कोई आश्चर्य नहीं किवह फिर भी अपने पूर्वजोंका उज्वल सुयशस्थम्म संसारके एक छोरसे लेकर दूसरे छोरतक गाढ़ दे। और एकवक सारे संसारमें जनधर्मका पाखविक महत्त्व प्रगट कर दे। .. क्योंकि उपाये सत्युपयेस्त्र मास का मतिबन्धता । पावालस्थं जलं यन्वाकरस्थं क्रियते यतः ॥ प्राप्त होनेवाली वस्तु के लिये उपाय किया जाय तो उसमें कोई प्रतिरोधक नहीं हो सकचा । क्योंकि-यनके द्वारा तो पातालसे भी जल निकाल लिया जाता है। हमारे प्रन्थकारका भी इतिहास गाढान्य कारमें पड़ा हुआ है .और न हमारे पास सामग्रीही है जो उसे अन्धकारसे निकाल कर उजालेमें ला सके । अस्तु, प्रन्यकारने अन्यके अन्तिम श्लोकमें कुछ अपना परिचय दिया है उसीपर कुछ श्रम करके देखते हैं कि हम कहां तक सफल मनोरय होंगे! वादीमेन्द्रमदनमर्दनहरेः शीलामृताम्भोनिधेः शिष्यं श्रीमदनन्तकीर्चिगणिनः सत्कीर्चिकान्ताजुपः । स्मृता श्रीललितादिकीचिमुनिपं शिक्षागुरुं सद्गुणं चक्रे चारु चरित्रमेतदनपं रत्नादिनन्दी मुनिः ।। भाव यह है कि-परवादीरूप गजरानके मदका नाश करने वाले, शीलामृतके समुद्र और उज्वल कीर्ति कान्तासे विराजित श्रीमनन्तकोनि महाराज के शिष्य और अपने विद्या गुरु श्रीललितकीर्ति मुनिराजका हृदयमें मरण कर रजनन्दी मुनिने यह निर्दोष चरित्र बनाया है । यही प्रन्यकारके इतिहासको नींव है। अथवा यो कहिये कि-पहली सीढ़ी है। पाठकखयं विचारेंकि-यह नीव कहां तक काम मा सकेगी। खरस सोकसे यह तो मालूम होगया कि-पवनन्दी

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