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परंपरा को नहीं सम्हाल रहा हूं परंपरा को तो तोड़ रहा हो लेकिन कोई शास्त्र परंपरावादी होता ही नहीं। परंपरावादी हो तो शास्त्र नहीं, साधारण किताब है।
___शास्त्र तो आग है। शास्त्र तो क्रांति है। शास्त्र तो जलाता है, भस्मीभूत कर देता है। जो जल सकता है, जल जाता है। जो नहीं जल सकता वही बचता है। जो बच जाता है आग से गुजरकर वही कुंदन, शुद्ध स्वर्ण हो जाता है।
इसलिए तुम मुझे किसी कोटि में मत रखो कि मैं क्रांतिकारी हूं कि परंपरावादी हां मैं कोई भी नहीं या दोनों साथ -साथ हूं। और तुमसे भी मैं यही चाहता हूं कि तुम चुन मत लेना चुनाव कर लिया कि तुम चूक गयेआधा ही हाथ लगेगा। और आधा सत्य असत्य से भी बदतर है।
पूरे से कम क्यों लो? जब पूरा मिल सकता हो तो कम पर क्यों राजी होओ? पूरा सत्य यही है कि परंपरा और क्रांति दिन और रात जैसे हैं, जन्म और मृत्यु जैसे हैं, साथ-साथ हैं। दोनों को नाचने दो गलबाहें डालकर। किसी तरफ पलड़ा ज्यादा न झुके न परंपरा की तरफ, न क्रांति की तरफ, तो तुम समतुल हो जाओगे। तो सम्यकत्व पैदा होता है।
दूसरा प्रश्न :
अष्टावक्र अकृत्रिम व सहज समाधि के प्रस्तोता हैं। उनके दर्शन में बोध के अतिरिक्त किसी अनुष्ठान, साधन या प्रयत्न को स्थान नहीं है। तो क्या वहां प्रार्थना भी व्यर्थ है?
प्रार्थना जो की जा सके वह तो व्यर्थ है। अष्टावक्र के मार्ग पर करना व्यर्थ है, किया व्यर्थ
है, कर्तव्य व्यर्थ है, कर्ता का भाव व्यर्थ है। तो जो प्रार्थना की जा सके वह तो व्यर्थ है; हौ, जो प्रार्थना हो जाये वह व्यर्थ नहीं है, जिस प्रार्थना को करते समय तुम्हारा कर्ता मौजूद न हो। आयोजन से हो जो प्रार्थना वह व्यर्थ है। अनायास जो हो जाये-कभी सूरज को उगते देखकर तुम्हारे हाथ जुड़ जायें नहीं कि तुमने जोड़े। जोड़े तो जुड़े ही नहीं। जुड़ गये तो ही जुड़े।
अब यह भी क्या बात है कि तुम हिंदू हो इसलिए सूर्य नमस्कार कर रहे हो। यह बात दो कौड़ी की हो गई। हिंदू होने की वजह से सूर्य नमस्कार कर रहे हो? सूर्य के उठने होने की वजह से करो। यह सूरज उठ रहा है, मुसलमान के हाथ नहीं जुड़ते, क्योंकि वह मुसलमान है। हिंदू के जुड़ जाते हैं क्योंकि वह हिंदू है। दोनों बातें फिजूल हैं।
इधर सूरज उग रहा है, वहां तुम हिंदू -मुसलमान का हिसाब रख रहे हो? यह परम सौंदर्य