Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन
सान्निध्य में रहने से अंगचतुष्ट्य अर्थात् मनुष्यत्व, शुद्ध श्रद्धा, संयम और सम्यक् पुरुषार्थ के नष्ट होने का भय रहता है। वह संयम में आधाकर्मी आदि दोष भी लगा देता है, अतः संविग्न गीतार्थ-गुरु की खोज बारह वर्षों तक तथा सात सौ योजन तक भी करना पड़े, तो भी करना चाहिए, परन्तु ऐसे असंविग्न-निर्यापक के सान्निध्य में समाधिमरण धारण नहीं करना चाहिए।
प्रस्तुत कृति में सातवें निर्जरणा-द्वार (गाथा 71-74) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि जिस साधक ने समाधिमरण धारण किया है और जिसके रोम-रोम में समता का वास हो गया हैऐसा क्षपक अल्पसमय में ही अन्य योगों एवं साधनाओं से असंख्यात भव के कर्मों का भी क्षय कर देता है। वह स्वाध्याय से, ध्यान-साधना से एवं बड़ों की सेवा शुश्रूषा करके कर्मों की निर्जरा कर लेता है, साथ ही सद्गति प्राप्त करने के लिए तो वह विशेष रूप से साधना करता है।
प्रस्तुत कृति के आठवें स्थानद्वार (गाथा 75-78) के प्रारम्भ में समाधि धारण करने वाले क्षपक के लिए स्थान किस प्रकार का होना चाहिए, इसकी चर्चा है। स्थान ऐसा होना चाहिए, जहाँ एकान्त हो, वातावरण शान्त हो, शोरगुल नहीं हो, जहाँ गायन, वादन और नृत्य-शालाएं न हों, लुटेरों का निवासस्थान न हो, जहाँ विकथा आदि नहीं होती हो, क्योंकि ऐसा होने पर क्षपक के ध्यान में बाधा उत्पन्न हो जाती है और उसका मन अशान्त तथा बैचेन हो जाता है। यही कारण है कि सबसे पहले शान्त स्थान की खोज करना चाहिए, जिससे क्षपक के हृदय में समाधि का भाव बना रहे।
प्रस्तुत कृति के नौवें वसतिद्वार (गाथा 79-82) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि समाधिमरण के साधक को कैसे स्थान पर निवास करना चाहिए। यह बताया गया है कि जहाँ उस क्षपक के मन को शान्ति मिले, जहाँ ज्यादा लोगों का आवागमन न हो और जहाँ 'खाद्य एवं पेय-सामग्री न रखी हो, वहीं क्षपक को रहना चाहिए। जहाँ परिवार वालों का ज्यादा आना-जाना होगा या अन्य परिस्थितियां होंगी, वहां रहने से क्षपक के मन में मोहभाव उत्पन्न हो सकते हैं, जो कि क्षपक की समाधि में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं, अतः ऐसे स्थान पर क्षपक को नहीं रखना चाहिए, अपितु जहाँ किसी प्रकार की विघ्न-बाधाएं न हों, ऐसे उचित स्थान को देखकर ही क्षपक को वहां स्थित करना चाहिए।
प्रस्तुत कृति के दसवें संस्तारकद्वार (गाथा 83-91) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि समाधि धारण करने वाले क्षपक का संस्तारक (बिछौना) कैसा होना चाहिए ? पोलाररहित कुशादि से बना हुआ छिद्ररहित तृण-संस्तारक बिछाया जाना चाहिए, जिससे क्षपक के शरीर में कोई पीड़ा उत्पन्न नहीं हो, मृदु संस्तारक न होने से क्षपक के मन में बैचेनी का भाव उत्पन्न हो जाएगा और वह रजाई-गद्दे आदि ओढ़ने व बिछाने के साधनों का प्रयोग करने की भावना वाला बनेगा, जिससे उसकी साधना में बाधा उत्पन्न होगी, अतः संस्तारक अति उत्तम होना चाहिए, जिससे साधक अपनी साधना में निःमग्न रहे और वह संसार-सागर पार करने में समर्थ हो सके।
प्रस्तुत कृति के ग्यारहवें द्रव्यदापनाद्वार (गाथा 92-99) के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि क्षपक को शरीर-समाधि बनी रहे, इसके लिए किस प्रकार का आहार दिया जाना चाहिए। क्षपक के मनोभावों को जानकर, उसके शरीर में समाधि बनी रहे, इसी प्रकार के मनाज्ञ द्रव्य का पान उसे कराना चाहिए, जिससे उस चरमाहार को चखकर वह संवेग-परायण हो जाता है और उसकी तृष्णा का छेदन हो जाता है।
प्रस्तुत कृति के बारहवें समाधिपान या विरेचन-द्वार (गाथा 100-102) के प्रारम्भ में तो यह बताया गया है कि निर्यापक यह समझे कि क्षपक क्या चाहता है, उसके शरीर में समाधि किस तरह
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