Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 19
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत प्रसंग में द्वारों का सम्बन्ध समाधिमरण के विविध आयामों या पक्षों से है। इनमें यह बताया गया है कि किस-किस रूप में किस-किस प्रकार से समाधिमरण की साधना की जाती है। उसके पश्चात्, आराधना - पताका में आराधना के दो रूपों- आभ्यन्तर और बाह्यरूपों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि कषाय की संलेखना करना, अर्थात् अन्तर में निहित कषायों को देखकर उनके निरसन का प्रयास करना आभ्यन्तर संलेखना है, जबकि मृत्युपर्यन्त आहारादि का त्याग करते हुए शारीरिक आवेगों को कृश करना बाह्य-संलेखना है। इसके पश्चात्, प्रस्तुत कृति में उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य के भेद से शरीर-संलेखना के तीनों प्रकारों की चर्चा हुई है। उत्कृष्ट शरीर-संलेखना अर्थात् शरीर और इन्द्रियों को कृश करने की प्रक्रिया बारह वर्ष की बताई गई है। मध्यम संलेखना बारह मास या एक वर्ष की तथा जघन्य शरीर-संलेखना बारह पक्ष, अर्थात् छः माह की बताई गई है। इसके पश्चात्, उत्कृष्ट संलेखना में तप आदि की विधि किस प्रकार होना चाहिए- इसका निर्देश करते हुए कहा गया है कि प्रथम चार वर्षों में विगयरहित, अर्थात् घी, तेल, दूध, दही, मिठाई आदि से रहित रूक्ष भोजन करना चाहिए। उसके पश्चात्, दो वर्ष तक एकान्तर-तप करना चाहिए, अर्थात् एक दिन उपवास, एक दिन भोजन करना चाहिए । प्रथम चार वर्षों में उपवास आदि विभिन्न प्रकार के तप करना चाहिए। उसके पश्चात्, चार वर्षों में विगयरहित भोजन और अगले दो वर्षों में एकान्तर - तप करना चाहिए । इस प्रकार, दस वर्ष की अवधि पूर्ण होने पर ग्यारहवें वर्ष में छः मास - पर्यन्त कठोर तप साधना करनी चाहिए, फिर ग्यारहवें वर्ष के अन्तिम छः मास और बारहवें वर्ष के प्रथम छः मास में निरन्तर आयम्बिल करके अन्त के छः मास में भक्तपरिज्ञा के माध्यम से आहारादि में धीरे-धीरे कमी करना चाहिए। इसी प्रसंग में यह बताया गया है कि शरीर को कृश किए बिना सहसा ही चतुर्विध-आहार का त्याग कर लेने से शरीर में असमाधि उत्पन्न होती है और उसके परिणामस्वरूप आर्त्तध्यान उत्पन्न होता है, जबकि संलेखना का मुख्य लक्ष्य समाधि या शान्तिपूर्वक शरीर का त्याग होता है, अतः शरीर-संलेखना इस प्रकार से करना चाहिए, जिससे शरीर में असमाधि न हो और समभावपूर्वक देहत्याग सम्भव हो । इसी क्रम में आगे आभ्यन्तर - संलेखना के लिए कषायों के कलुष के त्याग और अध्यवसायों की शुद्धि को आवश्यक कहा गया है। जब तक कषायरूपी अग्नि शान्त नहीं होती, तब तक संक्लेश के भाव समाप्त नहीं होते और संक्लेशयुक्त भाव - मरण जन्म-मरण की परम्परा को आगे बढ़ाता हैं, अतः समाधिमरण की साधना में मिथ्या - दुष्कृतरूपी जल से कषाय - अग्नि को शान्त करना आवश्यक है, इसलिए आराधना - पताका के प्रथम द्वार के अन्त में यह कहा गया है कि सोलह प्रकार की कषाय, नौ नोकषाय, ऐन्द्रिक - विषयों की आकांक्षा, अशुभ ध्यान, अशुभ लेश्या, रागद्वेष तथा आठ प्रकार के मदस्थान, सात प्रकार के भयस्थान का त्याग आवश्यक है। चूंकि ये सभी समाधि भाव में शल्यरूप हैं, अतः साधक को समाधिमरण की साधना में कषायों का कृशीकरण करना आवश्यक है। इसके पश्चात्, द्वितीय द्वार परीक्षा-द्वार (गाथा 25-28 ) में कहा गया है कि गुरु को समाधिमरण के इच्छुक साधक से उसकी संसार - सागर से पार जाने की क्षमता का परीक्षण करके ही उसे समाधिमरण करवाना चाहिए। जिस साधक में संसार - सागर से पार होने की इच्छा न हो, वही, 8 2 वही, 9 3 वही, 9-13 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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