Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 17
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन सामान्यतया, विद्वत्जगत् आराधना-पताका को एक प्रकीर्णक-ग्रन्थ के रूप में ही देखता है। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक-परम्परा में जो आगम-ग्रन्थों की सूची उपलब्ध है, उसमें जिन दस प्रकीर्णकों का उल्लेख है, आराधना-पताका का उसमें उल्लेख नहीं है। 'पइण्णाई सुत्ताई में हमें दो आराधना-पताकाओं का उल्लेख मिलता है- एक को प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका कहा है, तो दूसरी को वीरभद्राचार्य विरचित आराधना-पताका कहा गया है। यद्यपि यह परम्परा वीरभद्र को भगवान् महावीर के साक्षात् शिष्य के रूप में उल्लेखित करती है, किन्तु विद्वान् इसी बात से सहमत नहीं हैं। उनके अनुसार आचार्य वीरभद्र का काल ईसा की दसवीं शताब्दी है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि प्रस्तुत आराधना-पताका में आराधना शब्द का अर्थ सामान्यतया अंतिम आराधना ही है। अन्तिम आराधना का तात्पर्य जीवन के अन्तिम समय में की जाने वाली आराधना से होता है और जीवन के अन्तिम समय में की जाने वाली आराधना ही समाधिमरण की साधना के नाम से जानी जाती है। अतः, यह स्पष्ट है कि आराधना-पताका का मूलभूत प्रयोजन समाधिमरण की साधना से है। समाधिमरण की साधना-विधि से सम्बन्धित यदि कोई प्राचीनतम ग्रन्थ उपलब्ध होता है, तो वह समाधिमरणकृत आराधना-पताका ही है। आराधना-पताका के रचनाकार एवं उनकी परम्परा जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, आराधना-पताका नाम के दो ग्रन्थ मिलते हैं 'पइण्णाइ सुत्ताई' में इनमें से एक को प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका का नाम दिया गया है और दूसरे को वीरभद्रकृत आराधना-पताका कहा गया है, किन्तु ये प्राचीन आचार्य कौन हैं ? और उनकी परम्परा क्या थी ? इसका हमें कहीं भी स्पष्ट उत्तर नहीं मिलता है, फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थं की भाषा को देखते हुए इतना अवश्य कहा जाता है कि यह ग्रन्थ मूलतः अर्द्धमागधी-प्राकृत का है, जबकि वीरभद्रकृत आराधना-पताका में मुख्यतया महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव देखा जाता है। यद्यपि प्राचीनाचार्यकृत आराधना-पताका में भी कहीं-कहीं महाराष्ट्री-प्राकृत का प्रभाव है, फिर भी इसमें 'य' श्रति उतनी अधिक नहीं है, जो कि वीरभद्रकत आराधना-पताका में मिलती है। इससे यह तो निश्चित हो जाता है कि यह ग्रन्थ दसवीं शताब्दी में लिखे गए वीरभद्र की आराधना-पताका से प्राचीन हैं, किन्तु इसके रचनाकार वे प्राचीन आचार्य कौन हैं ? इनकी परम्परा क्या है ? यह स्पष्ट नहीं होता है, लेकिन इसमें वर्णित द्वारों और उनकी गाथाओं की बहुत-कुछ समानता हमें दिगम्बर-परम्परा में प्रचलित मूल आराधना अपर नाम भगवती-आराधना से मिलती है। भगवती-आराधना का काल लगभग पांचवीं-छठवीं शताब्दी माना गया है। दूसरे, "डॉ. सागरमल जैन के अनसार भगवती-आराधना यापनीय-परम्परा का ग्रन्थ है। यह यापनीय प में ईसा की पांचवीं शताब्दी से लेकर चौदहवीं शताब्दी तक अस्तित्व में रही।" आराधना-पताका की अनेक गाथाओं की भगवती-आराधना से आशिक समानता एवं आंशिक भिन्नता के आधार पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रन्थ यापनीय-परम्परा का नहीं है। अचेलकत्व आदि का स्पष्ट विधान नहीं होने से इसे दिगम्बर–परम्परा का ग्रन्थ भी नहीं कहा जा सकता। इससे इतना तो स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ प्राचीनकाल में किसी श्वेताम्बर आचार्य के द्वारा ही लिखा गया है। यह भी स्पष्ट होता है कि नन्दीसूत्र में जिन ग्रन्थों के नाम मिलते हैं, उनमें इन ग्रन्थों का कहीं उल्लेख नहीं 'देखें - जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय - डॉ. सागरमल जैन, पृ. 120 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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