Book Title: Aradhanapataka me Samadhimaran ki Avadharna
Author(s): Pratibhashreeji, Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 15
________________ प्राचीनाचार्य विरचित आराधनापताका में समाधिमरण की अवधारणा का समालोचनात्मक अध्ययन अध्याय - 1 विषय-प्रवेश जैन - आचार्यों ने विपुल साहित्य का सृजन किया है। जैन साहित्य वैसे तो अनेक भाषाओं में विरचित है, किन्तु प्राचीन स्तर का अधिकांश साहित्य प्राकृत भाषा में ही रचित मिलता है। Jain Education International प्राकृत भाषा में रचित जैन - साहित्य श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय- तीनों परम्पराओं में मिलता है। प्राचीन श्वेताम्बर आचार्यो ने जहां अर्द्धमागधी प्राकृत को अपने ग्रन्थों की मुख्य भाषा के रूप में महत्व दिया, वहीं परवर्ती श्वेताम्बर - आचार्यो ने अर्द्धमागधी के स्थान पर महाराष्ट्री - प्राकृत को अपनाया। इसी प्रकार, दिगम्बर - आचार्यों ने अपना साहित्य मुख्य रूप से शौरसेनी प्राकृत में लिखा । कालक्रम की दृष्टि से विचार करें, तो सर्वप्रथम अर्द्धमागधी भाषा में जैन - साहित्य की रचना हुई। उसके पश्चात् माथुरी - वाचना के काल से उसकी रचना शौरसेनी में प्रारम्भ हुई और अन्त में वल्लभी - वाचनाओं के परिणामस्वरूप आगमों की भाषा पर न केवल महाराष्ट्री - प्राकृत का प्रभाव आया, किन्तु इसके साथ ही आगम - साहित्य के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से भी अर्द्धमागधी, शौरसेनी और महाराष्ट्री - प्राकृत में भी जैनाचार्यों ने ग्रन्थ लिखे । जहां तक हमारे विवेच्य ग्रन्थ प्राचीन अज्ञात आचार्यकृत आराधना - पताका का प्रश्न है, यह मुख्यतः अर्द्धमागधी- प्राकृत में रचित प्रतीत होता है, किन्तु उस पर कहीं-कहीं महाराष्ट्री - प्राकृत का भी प्रभाव देखा जाता है । अर्द्धमागधी - प्राकृत में रचित श्वेताम्बर - परम्परा के ग्रन्थों में आगम - साहित्य का स्थान सर्वोपरि है । आगम को मुख्य रूप से अंग, उपांग, छेद - मूल - प्रकीर्णक तथा चूलिकासूत्र के रूप में विभाजित किया जाता है। यद्यपि नन्दीसूत्र में जो प्राचीन विभाजन की शैली है, उसमें आगम - साहित्य को मुख्यतः अंग और अंगबाह्य- इन दो रूपों में विभाजित किया गया है। पुनः, अंगबाह्य ग्रन्थों को आवश्यक और आवश्यक - व्यतिरिक्त- इन दो भागों में विभाजित किया गया । पुनः, आवश्यक - व्यतिरिक्त आगम-ग्रन्थों को भी कालिक और उत्कालिक- इन दो भागों में विभाजित किया गया । पुनः इन आगम-ग्रन्थों की व्याख्या रूप मुख्यतः अर्द्धमागधी प्रभावित महाराष्ट्री - प्राकृत में निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि लिखी गई, किन्तु जहाँ तक हमारे आलोच्य ग्रन्थ प्राचीन आचार्य विरचित आराधना-पताका का प्रश्न है, इस ग्रन्थ का वर्गीकरण न तो आगमों में और न आगमिक - व्याख्याओं में किया गया है। यद्यपि आगम - साहित्य के प्रकीर्णक - विभाग में संस्तारक, मरणविभक्ति, आतुरप्रव्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि ग्रन्थ मुख्यतः समाधिमरण से सम्बन्धित हैं, किन्तु आराधना - पताका का उल्लेख नन्दीसूत्र में नहीं है । जहाँ तक समालोच्य ग्रन्थ प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका का प्रश्न है, डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह ग्रन्थ नन्दीसूत्र और उसमें उल्लेखित प्रकीर्णकों के बाद लिखा गया है। आगमिक व्याख्या - साहित्य की दृष्टि से भी इस ग्रन्थ की रचना नियुक्ति और भाष्य के पश्चात् चूर्णि - साहित्य पूर्व हुई होगी। इस प्रकार, प्राचीनाचार्य विरचित आराधना-पताका 1 'जैन - साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 1 भूमिका - दलसुखभाई मालवाणिया 1 For Private & Personal Use Only पृ. 57 www.jainelibrary.org

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