Book Title: Anusandhan 2003 04 SrNo 23
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 9
________________ आया न विप्पो न यमेत्थ सुद्दो, मायंगकीडो न सुरो न वेसो । एगो सया दव्वगुणेण सुद्धो, कओ कुमित्तेण विचित्तवेो ॥ १३ ॥ तुमं सया चिंतसु सुद्धतत्तं सव्वेसु भूएस तहा समत्तं । नाणोवओगेसु धरेसु चित्तं, संजोगरूवेसु अ निम्ममत्तं ||१४|| मुत्तुं समट्टं नियपूयणट्टं, दंसेसि मायाकिरियाण कट्टं । लग्गो तुमं जं जणरंजणत्थं, नायं तओ ते मुणि ! पंडियत्तं ॥१५॥ कोहं को सयणट्टो, जेणाहं नो समट्ठमुपविट्ठो । वच्चसि किं गुणभट्ठो पुणो पुणो जीव ! भवघट्टो ||१६|| अनुसंधान - २३ किं तुज्झ मई नट्ठा जेण तुमं कुणसि अबुहजणचिट्ठा । किंच तए न हु दिट्ठा जे जे जगा पत्तहरिकंठा (?) ॥१७॥ दूसमसमया दुट्ठा मम सुहजोगा य तत्थ न पविट्ठा । जर तुह सुगई इट्ठा नियचिंता तत्थ सुबलिट्ठा ॥ १८ ॥ अप्पसरूवपविट्ठा जे सिट्टा ते मुणीण सुगरिट्ठा । तेसि गई मइलट्ठा जेणेया सव्वदुहरुट्ठा ॥ १९॥ पुणे ते तु पुट्ठा ताणुवरिं सिववहू अ संतुट्ठा । नट्ठा ताण किलिट्ठा जे नियसुहकम्ममइजुट्ठा ॥२०॥ ( द्वारं १) ॥ न भाविओ जेहिं सुसाहुसंगो कहं भवे ताण कुणाणभंगो । अण्णाणभंगो मुणियातुरंगो तओ भवे सिद्धवहूहिं संगो ॥ २१ ॥ कज्जलं चक्खुसंगेण, मालासंगेण सुत्तयं । तहा सज्जणसंगेण, सव्ववत्थूण गोरवं ॥२२॥ गीयत्थसाहुजणपायमुवासमाणो, सिद्धंततत्तवरसत्थसुहंबुपाणो । आया सुही भवई ताणि य सद्दहाणो, नायं पएसि - णिवई सुरलोयठाणो ||२३|| (द्वारं २ ) ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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