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का दम घुट रहा था। लोग बड़े ही दुख के साथ 'पाहिमाम्, पाहिमाम्' का स्वर ऊंचा कर रहे थे।
स्त्री-पुरुष दोनों ही नीति और धर्म का आंचल छोड़ चुके थे। दोनों ही कामुकता के पंक में फंसे हुए थे। स्त्रियों में पातिव्रत, शील और संकोच कानाम तक नहीं था। वे बंधनों को तोड़ चुकी थीं, लज्जा के आवरण उतारकर फेंक चुकी थीं। पुरुषों में दानवी वासना का प्राबल्य था। वे आचार, विचार, शील, संयम को छोड़कर केवल वासना-सम्पूर्ति को ही अपना धर्म मानने लगे। चारों ओर बलात्कार और अपहरण की आंधी उठ रही थी। बलात्कार और अपहरण के फलस्वरूप चारों ओर से रोदन, चीत्कार और क्रन्दन का हृदय-कम्पक स्वर उठ रहा था। नगर के सार्वजनिक स्थानों-गृहों, सभागृहों और नाट्य-शालाओं से भी ऐसे स्वर उठा करते थे; क्योंकि ये सभी स्थान पाप के अड्डे बन गए थे; जब किसी का कहीं वश न चलता तो वह इन स्थानों में पहुंचकर अपनी वासनाओं का नग्न नाच किया करता था।
लोगों का ध्यान मन, प्राण और आत्मा की धवलता की ओर से हटकर शरीर पर ही केन्द्रित हो गया था। लोग शरीर को ही सर्वस्व मानने लगे थे। पूजा, पाठ, यज्ञ, कीर्तन, साधना आदि को लोग छोड़ चुके थे, दिन-रात वे शारीरिक सुखों की पूर्ति के लिए ही प्रयत्नशील रहते थे। फलतः कृत्रिमता, आडम्बर और दिखावे का प्राबल्य था। पशु-वध और मदिरापान जोरों परथा। जुआ भी खूब होता था। मदिरा, द्यूत-क्रीड़ा और चरित्र भ्रष्टता–तीनों ने परस्पर मिलकर घर ती को यन्त्रणाका लोक
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