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लिए उस स्थिति-चित्र पर दृष्टि डालनी होगी, जो महावीर स्वामी के आविर्भाव के पूर्व धरती पर चित्रित था, और जिसके कारण चारों ओर पीड़ा और दुःख का ज्वार-सा उठ रहा था।
प्रायः पचीस-छब्बीस शताब्दी पूर्व की बात है। पृथ्वी के अंचल से शनः-शनैः सुख की मणियां लुप्त होती जा रही थीं। दुःख की काली छाया धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। दुःख भी एक प्रकार का नहीं, विभिन्न प्रकार का-शारीरिक दुख, मानसिक दुख, नैयायिक दुःख, सामाजिक दुख और घरेलू दुख आदि । देश में धन था, सम्पन्नता थी, खाने-पीने का अभाव भी नहीं था; पर कुछ लोगों तक ही सीमित था। कुछ लोग तो बड़े सुख और आनन्द के साथ जीवन व्यतीत कर रहे थे, पर अधिकांश लोग या तो गरीब थे, या अमीरों और बड़े-बड़े भूस्वामियों के यहां दास-रूप में जीवन व्यतीत कर रहे थे। दासों और सेवकों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं होता था। उन्हें नीची दृष्टि से देखा तो जाता ही था, अत्याचार की आग में जलाने से भी संकोच नहीं किया जाता था।
धनाढ्य कहे जाने वाले लोगों के पास अर्थ अधिक था, वे दूर-सुदूर देशों में घूम-घूमकर व्यापार भी खूब करते थे, पर उनमें विलासिता पांव फैला रही थी। उनका सारा धन विलासिता और पापकर्मों के प्रचण्ड अग्निकुण्ड में ही आहुति बना करता था। वे अपनी पाप-पूर्ण वासना की सम्पूर्ति के लिए कोई भी जघन्य कार्य करने के लिए तैयार रहते थे। फलतः चारों ओर बीभत्सता, कलुषता का धुआं उठ रहा था। इस धुएं से घरती काली हो गई थी। आकाश धूमिल हो गया था। लोगों