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श्रावक से भेंट हुई। श्रावक ने उसे सच्चे ज्ञान का उपदेश दिया। श्रावक ने उसे बताया कि 'धर्म को कट्टरता, तीर्थ, जाति-पांति, देव-पूजा–यह सब व्यर्थ है। मनुष्य को केवल सत्कर्म करना चाहिए। सत्कर्म ही पूजा है, सत्कर्म ही तीर्थ है और सत्कर्म ही महानता है । सत्कर्म ही है जो मनुष्यों को सुख और शान्ति प्रदान कर सकता है।' श्रावक के उपदेशों से प्रभावित हो ब्राह्मण-पुत्र सत्कार्यों में संलग्न हो गया। मृत्यु के पश्चात् वह अपने सत्कर्मों के परिणामस्वरूप राजा के घर जन्म लेकर राजकुमार पद पर प्रतिष्ठित हुआ। वह राजकुमार यही अभय
अभय अपने पूर्व-जन्मों के वृत्तान्तों को सुनकर और भी अधिक प्रभावित हुए। उनके मन में विरक्ति पैदा हो उठी। उन्होंने भगवान महावीर की सेवा में उपस्थित होकर उनसे प्रार्थना की कि वह उन्हें दीक्षा देकर अपनी शरण में लेने की कृपा करें। पर भगवान महावीर ने उन्हें तब तक दीक्षा देने में अपनी असमर्थता प्रकट की, जब तक वह दीक्षा के लिए अपने माता-माता की अनुमति न प्राप्त कर लें। पर यह तो सत्य ही है कि भगवान महावीर की अनुकम्पा से उनके हृदय में ज्ञान की ज्योति जल उठी थी।
अभय भगवान महावीर के आदेशानुसार अपने पिता से अनुमति प्राप्त करने के लिए राजसभा में उपस्थित हुए। उन्होंने सिंहासनासीन श्रेणिक को बड़ी श्रद्धा से प्रणाम किया। उन्होंने अपनी इच्छा पिता के सम्मुख रखने से पूर्व भूमिका के रूप में कई तत्त्वों का विवेचन किया। उनके सारगर्भित विवेचन को