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से गहन हैं । भौतिक कामनाओं में फंसे हुए मनुष्यों में सामर्थ्य कहां कि वे उन्हें स्पर्श कर सकें । फिर भी यहां भगवान महावीर के उपदेशों के सहारे उनमें से कुछ पर साधारण-रूप में प्रकाश डालने का प्रयत्न किया गया है ।
अहिंसा
भगवान महावीर ने अहिंसा पर सबसे अधिक बल दिया है । उनका सम्पूर्ण जीवन हिंसा के विरुद्ध संघर्ष करने और अहिंसा के प्रचार में ही व्यतीत हुआ है । यों तो विश्व में बड़े-बड़े अहिंसावादी हुए हैं, पर भगवान महावीर के समान अहिंसावादी संसार में कोई नहीं हुआ। भगवान महावीर अहिंसा को धर्म का अंग नहीं, वरन् अहिंसा को ही धर्म और सत्य मानते थे । उनका कहना था कि जो मनुष्य अहिंसा को छोड़कर धर्म और ईश्वर की राह पर चलता है, उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता।
भगवान महावीर का सम्पूर्ण जीवन-दर्शन ही अहिंसा पर अवलम्बित है। उनके पूर्व जो तीर्थंकर हुए हैं, उन्होंने भी अहिंसा को धर्म के प्रधान अंग के रूप में ग्रहण किया है । सारा जैन - धर्म - साहित्य अहिंसा की विशिष्टताओं से ओत-प्रोत है । व्याकरण - सूत्र में अहिंसा की विशिष्टताओं का चित्रण इस प्रकार किया गया है :
१. जिस प्रकार भय से समाकुल प्राणियों के लिए शरण आधार होता है, उसी प्रकार विश्व के दुःखों से भयभीत प्राणियों के लिए अहिंसा आधारभूत है ।
२. जिस प्रकार पक्षियों के गमन के लिए आकाश आधार है, उसी प्रकार भव्य जीवों के लिए अहिंसा का आधार होता है ।
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