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रानियां थीं। वह जरा की चिन्ता से दूर, दिन-रात विषयवासनाओं में डूबे रहते थे।
एक दिन भगवान महावीर का राजगृह के उद्यान में आगमन हुआ। नगर के कोने-कोने में विद्युत्-तरंग की भांति खबर फैल गई। लोग झुण्ड-के-झुण्ड भगवान की अभिवन्दना के लिए उद्यान में जा पहुंचे । इन अभिवन्दना करनेवालों में मेघकुमार भी थे। भगवान ने अपनी अमृत-पगी वाणी में उपदेश दिया। अपने उपदेश से जन-जन के हृदय में ज्ञान का दीपक जला दिया। मेघकुमार ने भी भगवान महावीर के उपदेश सुने। भगवान के उपदेश-वचनों से मेघकुमार के हृदय की कालिमा दूर हो गई। उनका हृदय चन्द्रमा की भांति निर्मल और धवल हो गया । सत्य की वास्तविकता और संसार की असारता का चित्र उनकी आंखों के सामने साकार हो उठा। वह भगवान के सम्मुख उपस्थित हुए। उन्होंने बड़ी श्रद्धा से भगवान को प्रणाम कर विनीत वाणी में निवेदन किया, "प्रभो, आपके दिव्य उपदेश ने मेरे हृदय-नेत्र खोल दिये हैं। मुझे कृपा करके दीक्षा दीजिए।"
पर भगवान महावीर ने कोई उत्तर न दिया। मेघकुमार ने मन-ही-मन सोचा, जब तक वह माता-पिता से अनुमति न प्राप्त कर लेंगे, भगवान दीक्षित न करेंगे। फलतः मेघकुमार अनुमति प्राप्त करने के लिए माता-पिता की सेवा में उपस्थित हुए। पर माता-पिता उन्हें सहज ही क्यों अनुमति देने लगे ? माता-पिता ने मेघकुमार को अनेक प्रकार से समझाया, बंधुबांधवों की भी सहायता ली, पर मेघकुमार के मन पर किसी
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