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हो सके हैं !"
राजा तत्क्षण बोल उठा-"उन शत्रुओं के नाम बताइए, मन्त्री जी, मैं उन पर भी आक्रमण करके उन्हें ध्वस्त कर
दूंगा।"
वयोवृद्ध मन्त्री ने निवेदन किया-"राजन्, उन शत्रुओं के नाम हैं गरीबी, दुःख, रोग, बुढ़ापा, पापाचार, क्रोध, मान, माया, लोभ और अहंकार।"
राजा नेत्रों में आश्चर्य भरकर मन्त्री की ओर देखने लगा। वह 'हां' या 'ना'-कुछ न कह सका । उसका कंठ अवरुद्ध हो गया। स्पष्ट है कि वह देशों को तो पराभूत कर सकता था, पर इन शत्रुओं को परास्त करने की उसमें क्षमता नहीं थी। केवल उसी में नहीं, बड़े-से-बड़े चक्रवर्ती सम्राट, बड़े-से-बड़े क्रान्तिकारी नेता और समाज-सुधारक भी मनुष्य के इन शत्रुओं से युद्ध करने में अपने को असमर्थ पाते हैं। भगवान महावीर ने मनुष्य के इन शत्रुओं से केवल युद्ध ही नहीं किया, उन पर विजय भी प्राप्त की। इसीलिए तो भगवान महावीर की वह जय-यात्रा सदा-सदा के लिए स्मरणीय बन गई।
भगवान महावीर अपनी वय की तीसवीं सीढ़ी पर चरण रख चुके थे । माघ के शुक्ल पक्ष की दसमी थी । भगवान महावीर कामनाओं से युद्ध करने के लिए उद्यत हो उठे। उन्होंने राज्य, भवन, सुख, सम्पदा और कुटुम्ब-बन्धुवर्ग, सबके बन्धनों को तोड़ दिया और एक महान योद्धा की भांति सबको छोड़कर पृथक् जा खड़े हुए। सारे कुण्डलपुर में शोक और उल्लास की आंधी दौड़ गई। शोक इसलिए कि उनके प्राणप्रिय राज