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भगवान महावीर के निकट जा पहुंचा। उसने बड़े ध्यान से भगवान को देखा। उनके मस्तक पर मुकुट और भुजाओं में चक्र के चिह्न थे। वह सोचने लगा--अवश्य यह चक्रवर्ती सम्राट हैं। इनके शरीर में वे सभी लक्षण विद्यमान हैं जो शास्त्रों में चक्रवर्ती सम्राट के लिए बताए गए हैं। पर शीघ्र ही पुष्प के मन में वास्तविकता प्रकट हो गई। उसने अनुभव किया कि यह तोसम्राट नहीं, सम्राटों के भी सम्राट हैं-चौबीसवें तीर्थंकर हैं । तीर्थंकर ! हां, तीर्थकर-जिनकी सांसों से सुगन्ध का प्रवाह निकलता है, जो रोगों के जेता हैं, जिनका शरीर मल-मूत्र से रहित है और जिनके शरीर का मांस और रक्त दूध की भांति होता है । पुष्प ने भगवान महावीर की बार-बार अभिवन्दना की।
एक बार स्वर्ग की देवांगनाओं के मन में भी पुष्प की भांति ही सन्देह जागृत हो उठा। भगवान के शरीर की स्वर्ण. कान्ति देखकर देवांगनाओं ने सोचा, हो नहीं सकता कि ऐसे स्वस्थ और सुन्दर पुरुष के मन में काम-वासना न उत्पन्न हो। देवांगनाएं भगवान महावीर के संयम को परीक्षा लेने के लिए उद्यत हो उठीं।
वसन्त के दिन थे। चारों ओर वन-वाटिकाएं पुष्पों से लदी थीं। पक्षी सुमधुर स्वरों में चहचहा रहे थे। भगवान महावीर एक पुष्पित उद्यान के मार्ग से होकर जा रहे थे। सहसा उनके सामने देव-बालाएं प्रकट हो उठीं। वे एक-से-एक सुन्दर वस्त्रों
और आभूषणों से अलंकृत थीं। सब-की-सब प्रकट होकर नृत्य करने लगों, गाने लगों, कामुक हाव-भाव प्रदर्शित करने लगीं
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