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पर यह तो सत्य ही है कि उनका मन उस मंगलमय घड़ी को देखने के लिए रह-रहकर अधोर हो रहा था, जब यशोदा और राजकुमार वर्द्धमान दोनों परिणय के सूत्र में बंधेगे और सारा राजभवन मंगल-गीतों से मुखरित हो उठेगा। आखिर एक दिन अवसर पाकर उन्होंने राजकुमार वर्द्धमान से चर्चा छेड़ ही दो-"बेटा, मैं कलिंग-नरेश की पुत्री यशोदा को अपनी पुत्र-वधू बनाना चाहती हूं।"
पर राजकुमार वर्द्धमान ने कुछ उत्तर न दिया। माता त्रिशला पुनः बोल उठीं- “बोलो बेटा, मैं तुम्हारी सहमति चाहती हूं । अब मेरी यही अभिलाषा है।"
राजकुमार वर्द्धमान ने अर्थपूर्ण दृष्टि से मां की ओर देखा और कहा- "मुझे दुःख है मां, तुम्हारी यह अभिलाषा पूर्ण न हो सकेगी । मैं विवाह-बंधन में न बंधूंगा।"
राजमाता त्रिशला विस्मय-भरे स्वर में बोल उठी"विवाह न करोगे ! पर क्यों ?"
राजकुमार वर्द्धमान ने उत्तर दिया-"मां, मैंने लोक और आत्म कल्याण का महाव्रत लिया है । देख रही हो न, चारों ओर अधर्म और अज्ञान का अन्धकार फैला हुआ है ! चारों ओर से पाप का धुआं उठ रहा है और बलि दिये जाने वाले पशुओं की करुण चीत्कार से दिशाएं कम्पित हो रही हैं। मां, मैं इस अज्ञानान्धकार को दूर करूंगा। इस अंधेरे को, इस कदाचार को मिटाने में ही अपना सम्पूर्ण जीवन लगाऊगा।"
राजमाता त्रिशलादेवी स्तब्ध हो उठीं। वह सोचती थीं, पुत्र का विवाह करूगो, राजभवन में पुत्र-वधू लाकर मंगल
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