Book Title: Anekant 1962 Book 15 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 11
________________ महावीर के महावाक्य लेखक-डा. जगदीशचन्द्र जैन एम. ए. पी-एच. डी. संसार में समय-समय पर महान् पुरुषों का प्रादुर्भाव सामंत बने रहे और साधारण वर्ग गुलामी की चक्की में होता आया है। महापुरुषों ने जन कल्याण के लिए अपना पिसता रहा । और तारीफ़ की बात यह कि सामंतों ने सब कुछ न्योछावर कर दिया और भूली-भटकी जनता को अपने दुष्कर्मों से छुटकारा पाने के लिए ब्राह्मणों का प्राश्रय सुमार्ग पर लगाया। महावीर वर्धमान भी ऐसे ही महान ढूंढ़ा, और ब्राह्मणों ने भी यज्ञ, त्याग, जप, तप आदि कर्मव्यक्ति थे। कांड के विधान द्वारा सामंतों को उनके पाप कर्म के बंधन उनका उपदेश था -- से मुक्त करने का फ़तवा दे दिया। १. मनुष्य को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है ऐसी विषम परिस्थतियो से पूर्ण समाज को गुलामी के इस लिये दूसरों को दुख पहुँचाने वाला कर्म नहीं करना पाप से छुड़ाना कितना दुष्कर होगा? ऐसे अव्यवस्थित चाहिए। और अस्त व्यस्त समाज में ज्ञातृ पुत्र महावीर और गौतम २. दूसरों को दुख पहुंचाने वाले हिंसात्मक कर्म से दूर बुद्ध नामक दो महान शक्तियों का प्राविभाव हुआ; दोनों रहना चाहिये-इसे हिसा कहते है। ने मनुष्य मात्र की रामानता पर जोर देते हुए अच्छे और ३. हिंसात्मक कर्मों का त्याग करने के लिए संयम बुरे कर्म के आधार पर ही ऊँच-नीच को स्वीकार किया। द्वारा अपनी इच्छाओं पर अंकुश रखना मावश्यक है। यदि जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर महावीर वर्द्धमान का हम ऐसा नहीं करते तो हम दूसरों को उनके हक से वंचित जन्म विहार राज्य की उस वैशाली नगरी में हुआ था जहाँ रखते हैं। लिच्छवि लोग गणतंत्र द्वारा अपना शासन चलाते थे। संक्षेप में भगवान् महावीर के यही मूल सिद्धांत हैं। भगवान महावीर के कर्म सिद्धांत की जड़ इन्हीं लिच्छवियों महावीर के सिद्धांतों को ठीक तरह समझने के लिए की गणतंत्र की भावना से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। हमें आज से लगभग अढाई हजार वर्ष पहले के भारत की उनका प्रथम महा वाक्य हैओर जाना होगा। उन दिनों सामंतशाही का वोलवाला जमिणं जगई पुढो जगा, कम्महि लुप्पति पाणिणो, था क्षत्रिय शासक ब्राह्मण पुरोहितों के साथ गठबंधन करके सयमेव कडेहि गाहइ, नो तस्स मुच्चेज्ज झुडपं ॥ राज्य का संचालन करते थे । इन दोनों वर्गों के हाथ में अच्छा या बुरा जैसा भी कन हो, उसका फल भोगे बिना सारी सत्ता थी जिससे समाज का नियंत्रण होता था। तरह छुटकारा नहीं। संसार में जितने भी प्राणी है सब अपने तरह के धार्मिक आडम्बरों में तत्कालीन समाज जकड़ा कार्मों के कारण दुखी हैं । हुना था। क्षत्रिय शासक और ब्राह्मण पुरोहितों का यह भगवान महावीर ने वार-बार इस बात को कहा है वर्ग अपनी खुशी और सुख-सुविधा के लिए जन-समाज का कि मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्यमेव भोगना पड़ता भरपूर शोषण कर हीन कहे जाने वाले लोगों से हर प्रकार है; जो जैसा करता है, वैसा फल पाता है। मनुष्य चाहे का काम लेता और दास वृत्ति करने के लिए उन्हें बाध्य जो कर सकता है, चाहे जो बन सकता है और वह अपने करता । इसके फलस्वरूप धामिक, और सामाजिक और भाग्य का विधाता स्वयं है। इसीलिये महावीर के निर्ग्रन्थ जात-पात के आडंबरों में फंसकर जन-साधारण प्रपना मान प्रवचन में ईश्वर को जगत् का कर्ता स्वीकार नहीं किया ही खो बैठा और पशु से भी बदतर जीवन बिताने के लिए गया; तप आदि सत्कर्मों द्वारा आत्मविकास की सर्वोच्च बाध्य हो गया। गोषण की यह व्यवस्था संकटों-हजारों अवस्था को ही ईश्वर बताया गया है। जैनधर्म की भारवर्ष तक लगातार चलती रही। नतीजा यह हुआ कि सामंत तीय दर्शन को यह बहुत बड़ी देन है।

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