Book Title: Anand Pravachana Part 1
Author(s): Anandrushi
Publisher: Ratna Jain Pustakalaya

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Page 19
________________ •[७] आनन्द प्रवचन : भाग १ एक - (मन) को जीत लेने पर पाँच (इन्द्रियों) को जीत लिया जाता है और पाँच को जीत लेने पर अर्थात् एक मन, पाँच इन्द्रियों और चार कषाय --- ये सभी जीत लिए जाते हैं। इन सों को जिसने जीत लिया, उसने सभी आत्मिक शत्रुओं को जीत लिया। जो भव्य जीव भगवान के इस आदेश को सुनकर सचेत हो जाते हैं, . वे ही जीवन के रहस्य को समझकर अशा और तृष्णा पर विजय प्राप्त करते हैं तथा सांसारिक पदार्थों की नश्वरता और सम्मारिक सम्बन्धों की विच्छिन्नता को समझते हैं। उन्हीं व्यक्तियों का चित्त निर्मल, भाका शुद्ध और क्रियाएँ निष्कपट बनती हैं। उनके हृदयों में जीव मात्र के प्रति अतिम करुणा और प्रेम का अजस्त्र प्रवाह बहने लगता है। परिणाम यह होता है कि उनके द्वारा किसी भी प्राणीका अनिष्ट नहीं होता तथा ऐसी स्थिति प्राप्त होने पर ही उनके संयम का विकास होता है जो कि धर्म का दूसरा रूप है। तप धर्म का तीसरा रूप बतलाया गया है। संयम रखने के लिए कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करना अनिवार्य हैं। स्वेज्छापूर्वक कष्टों को सहन करना ही तप है। जीवन में जब तप को स्थान मिला है तो अहिंसा और संयम का निर्वाह भी भली भाँति होने लगता है। कई व्यक्ति कहते हैं कि तप करना मूरों का काम है, क्योंकि पाप तो आत्मा करती है और तप करके शरीर सुखाया जाता है। शरीर को भूखा-प्यासा रखने तथा शीत और ग्रीष्मादि कष्टों में डालने में आत्मा को क्या लाभ है? ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों से पूछना चाहिए कि मक्खन में से घी निकालने के लिये तुम उसे बर्तन में रखकर आग पर क्यों रखते हो? घी मक्खन में होता है न कि बर्तन में। तब फिर बर्तन का व्यर्थ ही तपाने का क्या कारण है? उत्तर यही मिलेगा कि पात्र में रखकर तपाये बिना घी नहीं निकल सकता। मक्खन को सीधा ही आग में झोंक दिया जाय तो वह मिस्म हो जाएगा। ठीक इसी प्रकार समझ लेना काहिए कि जिस प्रकार मक्खन को शुद्ध कर घी निकालने के लिये पात्र को तपमा आवश्यक है, उसी प्रकार आत्मा को शुद्ध करने के लिये आत्मा के आश्रयरूप शरीर को तपाना आवश्यक ही नहीं, वरन् अनिवार्य है। कहा भी है :"तपोऽग्नि ताप्यमानस्तान जीवो विशुद्धयति।" योगशास्त्र --- कर्म-मल से संयुक आत्मा तप रूप अग्नि से तपाया जाकर पवित्र बन जाता है। अर्थात् कर्म-मल से रहित हो जाता है। तप की महिमा महान है। तप के द्वारा ही मनुष्य अपने अभीष्ट पद को

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