Book Title: Anagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pt Khoobchand Pt
Publisher: Natharang Gandhi

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Page 7
________________ अवमार के विरुद्ध एक अक्षर लिखनेसे भी कांपती थी और वे इस भयंकर पापसे अत्यंत भीत थे। इस ग्रंथके अंतमें जो उन्होंने श्री शान्तिनाथ भगवान से प्रार्थनाकीक" कविजन समीचीन विद्याके रसको प्रकट करने वाली ही कविता किया करें" उसका उन्होंने अक्षरशः पालन किया है और उसके द्वारा उन्होने आजकलके निरर्गल लेखनकि स्वामी तथा अपनी विद्यावानरीका घर घर नर्तन कराने वालोंके लिये आदर्श उपस्थित किया है। । यदि आशाधरजी विद्वानोंकेलिये भी दुर्गा अपने ग्रन्थोंकी टीका स्वयं न बनाते तो सचमुचमें इस का. लरात्रि के अन्दर उनके अर्थका मान होना असंभव नहीं तो दुःसाध्य अवश्य होजाता। अत एव जिस प्रकार अपनी अजरामर कृतिकति के रूपमें आज भी हमारे सामने उपास्थत महापण्डितः आशाधरजीकी हमको पूजा करनी चा. हिये उसी प्रकार जिन मव्यात्माओंने प्रार्थना करके इन ग्रंथोंको सनिबंध कराया है उन सेठ महीचन्द्र और सेठ हरदेव प्रभृति के प्रति भी कृतज्ञतावश भक्तिपुष्पांजलि अर्पण करनी चाहिये। पण्डित आशाधरजीने जितने ग्रंथ बनाये हैं उनमेसे अनेक ग्रंथ अभी अनुपलब्ध हैं । उपलब्ध ग्रंथोमेसे यह अनगार धर्मामृतका टीका उनका अंतिम ग्रंथ मालुम होता है। इसके बाद उनोने कोई ग्रंथ बनाया या नही सो निश्चित जानने का कोई साधन नहीं है। अस्तु । इस ग्रंथकी महत्ता पाठकों को वांचने पर स्वयं मालुम होगी। परन्त इतना अवश्य कहेंगे कि इसका जैसा नाम हे यह ठीक पैसा ही है. आगम समुद्रका मंथन करके पंडित आशाधरजीने इस ग्रंथके रूपमें मुनिधर्मरूपी अमृतकी ही सृष्टि की है। यद्यपि इस ग्रंथमें मुनिधर्मकी प्रधानतासे उसीका वर्णन किया है परन्तु अन्तका कुछ भाग ऐसा भी जिसमें गौणरूपसे षडावश्यक आदि श्रावकोंकी चयोका भी वर्णन किया है । तथा आदिका कुछ भाग जिसमें किधर्मका फल बताया है और उसके बाद जहां पुण्यफलकी भी तुच्छता या निंदा प्रकट की है वह भी श्रावकोलिये उपयोगी है । इसके सिवाय मुनिधर्मका स्वरूप भी श्रावकों को जानना आवश्यक है । अत एव इससे केवल निर्माणसाधुओंको ही नहीं श्रावकों को मी लाम होगा ऐसा समझकर हमने इसको हिंदी भाषा अनुवादित किया है।

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