Book Title: Anagar Dharmamrut
Author(s): Ashadhar Pt Khoobchand Pt
Publisher: Natharang Gandhi

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Page 5
________________ सदाचारके नष्ट होने के मयसेही उसको-जन्मभूमि-मण्डलगढको छोडकर मालवाकी धारा नगरी में आकर रहे. जिसकोलिये लोक कहा करते हैं कि "जमनी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" उस स्वर्गापम अथवा माताके समान प्रिय जन्मभूमिका केवल सदाचारकेलिये परित्याग करदेना एकमात्र दृढ धार्मिक निष्ठाकाही कार्य है. आगममें लिखा है कि यदि चारित्रमें पति पडनेका प्रसङ्ग आवे-धार्मिक बाचरण नष्ट होता हुआ दिखाई दे तो मनुष्यको चाहिये कि समाधिपूर्वक मरणको प्राप्त होजाय परन्तु चारित्रको भग्न न होने दे । क्योंकि नावश्यनाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः । देहो नष्टः पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ॥ किंतु यह आज्ञा निरुपाय अवस्थाकेलिये है, जैसा कि अभी हालही में केशरियानाथजी-धुलेवमें श्वेताम्बरों और उनके पक्ष के कुछ राजकर्मचारियोंद्वाग मारे जानेपर कुछ दिगम्बरोंने कर दिखाया है। परन्तु जातिक हो उसका उपाय करना चाहिये । जब कोई भी उपाय सफल होता हुआ दिखाई न दे तो सल्लेखना ही करना उचित है । तात्पर्य यह कि जिससे धर्माचरण सुरक्षित रह कर जीवन बच सके ऐसा ही उपाय करना चाहिये । यदि धर्माचरण नष्ट होकर प्राण बचते हों तो वह उपाय धार्मिकों को मान्य नहीं है । अत एव जब चारित्रमें क्षति परती हुई दिखाई दी तो पं. आशधरजीने जन्मभूमिमें रहना इस नीतिवाक्यके अनुसार धर्म और आत्मिक उअति तथा महचा प्राप्त करनेमें बाधक ही समझा कि आलस्यं स्त्रीसेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यं । संतोषो भीरुत्वं षड् व्याघाता महत्त्वस्य ।। धारा नगरीको छोडकर महापंडित आशारजी अंतिम अवस्थामें नलकच्छपुरमें आकार रहे थे। इसका हेतु जिन धर्मका उदय करना लिखा है । यद्यपि जिन धर्म के उदयका अर्थ उसकी प्रभावना तथा अन्य धर्मात्मा ओंके हृदय में उसकी दृढता तथा रद्दीप्ति आदि कर देना भी हो सकता है परन्तु उनकी अवस्था और अनेक वाक्य बतलाते है कि जिस समयमें उन्होंने इस टीका आदिकी रचना की है उस समयमें वे अवश्य ही गृहनिवृत्त होंगे, और केवल धर्म सेवन करनेफेलिये ही वे नलकच्छपुग्में आकर रहे होंगे। क्योंकि जिस समय वे नलकच्छ में जाकर रहे उस समय उनकी अवस्था युद्ध थी। इस टीकाकी रचनाके समय उनकी अवस्था ७० वर्ष से कम न होगी । क्योंकि

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