________________ परीषहों की उत्पत्ति का कारण ज्ञानावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और वेदनीय कर्म हैं / ज्ञानावरणीयकर्म प्रज्ञा और अज्ञान परीषहों का, अन्तरायकर्म अलाभ परीषह का, दर्शनमोहनीय प्रदर्शन परीषह का और चारित्रमोहनीय अचेल, अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना, सत्कार, इन सात परीषहों का कारण है। वेदनीयकर्म क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और जल्ल, इन ग्यारह परीषहों का कारण है।०६ अधिकारी-भेद की दृष्टि से जिसमें सम्पराय अर्थात् लोभ-कषाय की मात्रा कम हो, उस दसवें सूक्ष्मसम्पराय में तथा ग्यारहवें उपशान्तमोह और बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में (1) क्षुधा (2) पिपासा (3) शीत (4) उष्ण (5) दंशमशक (6) चर्या (7) प्रज्ञा (8) अज्ञान (9) अलाभ (10) शय्या (11) वध (12) रोग (13) तृणस्पर्श और (14) जल्ल, ये चौदह परीषह ही संभव हैं। शेष मोहजन्य आठ परीषह वहाँ मोहोदय का अभाव होने से नहीं हैं। दसवें गुणस्थान में अत्यल्प मोह रहता है। इसलिए प्रस्तुत गुणस्थान में भी मोहजन्य पाठ परीषह संभव न होने से केवल चौदह ही होते हैं। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में 8 (1) क्षुधा (2) पिपासा (3) शीत (4) उष्ण (5) दंश-मशक (6) चर्या (7) वध (8) रोग (9) शय्या (10) तृणस्पर्श और (11) जल्ल, ये वेदनीयजनित ग्यारह परीषह सम्भव हैं / इन गुणस्थानों में घातीकर्मों का अभाव होने से शेष 11 परीषह नहीं हैं। यहाँ पर यह स्मरण रखना होगा कि १३वें और १४वें गुणस्थानों में परीषहों के विषय में दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों के दृष्टिकोण में किंचित् अन्तर है और उसका मूल कारण है--दिगम्बर परम्परा केवली में कवलाहार नहीं मानती है। उसके अभिमतानुसार सर्वज्ञ में क्षुधा प्रादि 11 परीषह तो हैं, पर मोह का अभाव होने से क्षधा ग्रादि वेदना रूप न होने के कारण उपचार मात्र से परीषह हैं। उन्होंने भी की है। 'न' शब्द का प्रध्याहार करके यह अर्थ लगाया है जिनमें बेदनीयकर्म होने पर भी तदाश्रित क्षुधा आदि 11 परीषह मोह के अभाव के कारण बाधा रूप न होने से हैं ही नहीं। सुत्तनिपात में तथागत बुद्ध ने कहा-मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, वात, पातप, दंश और सरीसप का सामना कर खड्मविषाण की तरह अकेला विचरण करे। यद्यपि बौद्धसाहित्य में कायक्लेश को किंचित मात्र भी महत्त्व नहीं दिया गया, किन्तु श्रमण के लिए परीषहसहन करने पर उन्होंने भी बल दिया है। कितनी ही गाथाओं की तुलना बौद्धग्रन्थ-धेरगाथा, सुत्तनिपात तथा धम्मपद और वैदिकग्रन्थ-महाभारत, भागवत और मनुस्मृति में आये हुए पद्यों के साथ की जा सकती है। उदाहरण के रूप में हम नीचे वह तुलना दे रहे हैं। देखिए 76. भगवतीसूत्र 8-8 77. सूक्ष्मसम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश। --तत्त्वार्थसूत्र 9 / 10 78. एकादश जिने / -तत्वार्थसूत्र 9 / 11 79. तत्त्वार्थसूत्र (पं० सुखलाल जी संघवी), पृष्ठ 216 80. सीतं च उण्डं च खुदं पिपासं वातातपे डंस सिरीसिपे च / सब्बानिपेतानि अभिसंभक्त्विा एको चरे खग्गविसाणकप्पो॥ -सुत्तनिपात, उरगवग्ग 3-18 [ 34 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org