________________ हस्तीपालजातक बौद्धसाहित्य का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसमें कुछ परिवर्तन के साथ यह कथा उपलब्ध है। हस्तीपालजातक में कथावस्तु के पाठ पात्र है। राजा ऐसुकारी, पटरानी, पुरोहित, पुरोहित की पत्नी, प्रथम पुत्र हस्तीपाल, द्वितीय पुत्र अश्वपाल, तृतीय पुत्र गोपाल, चौथा पुत्र प्रजपाल, ये सब मिलाकर पाठ पात्र हैं। ये चारों पुत्र न्यग्रोधवृक्ष के देवता के वरदान से पुरोहित के पुत्र होते हैं। चारों प्रजित होना चाहते हैं / पिता उन चारों पुत्रों की परीक्षा करता है। चारों पुत्रों के साथ पिता का संवाद होता है। चारों पुत्र क्रमश: पिता को जीवन की नश्वरता, संसार की असारता, मृत्यू की अविकलता और कामभोगों की मोहकता का विश्लेषण करते हैं। पुरोहित भी प्रव्रज्या ग्रहण करता है। उसके बाद ब्राह्मणी प्रवज्या लेती है। अन्त में राजा और रानी भी प्रवजित हो जाते है / . सरपेन्टियर की दृष्टि से उत्तराध्ययन की कथा जातक के गद्यभाग से अत्यधिक समानता लिए हुए है। वस्तुतः जातक से जैन कथा प्राचीन होनी चाहिए। 48 डॉ. घाटगे का मन्तव्य है कि जैन कथावस्तु जातककथा से अधिक व्यवस्थित, स्वाभाविकता और यथार्थता को लिए हए है। जैन कथावस्तु से जातक में संगहोत कथावस्तु अधिक पूर्ण है। उसमें पुरोहित के चारों पुत्रों के जन्म का विस्तृत वर्णन है। जातक में पुरोहित के चार पुत्रों का उल्लेख है, तो उत्तराध्ययन में केवल दो का। उत्तराध्ययन में राजा और पुरोहित के बीच किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, जबकि जातक में पुरोहित और राजा का सम्बन्ध है / पुरोहित राजा के परामर्श से ही पुत्रों की परीक्षा लेता है / स्वयं राजा भी उनकी परीक्षा लेने में सहयोग करता है। जैनकथा के अनुसार पुरोहित का कुटुम्ब दीक्षित होने पर राजा सम्पत्ति पर अधिकार करता है। उसका प्रभाव महारानी कमलावती पर पड़ता है और वह श्रमणधर्म को ग्रहण करना चाहती है तथा राजा को भी दीक्षित होने के लिए प्रेरणा प्रदान करती है / जैन कथावस्तु में जो ये तथ्य हैं, वे बहुत ही स्वाभाविक और यथार्थ हैं / जातक कथावस्तु में ऐसा नहीं हो पाया है। जातक कथा में न्यग्रोधवक्ष के देवता के द्वारा पुरोहित को चार पुत्रों का वरदान मिलता है परन्तु राजा को एक पुत्र का वरदान भी नहीं मिलता है, जबकि राज्य के संरक्षण के लिए उसे एक पुत्र की अत्यधिक आवश्यकता है / इन्हीं तथ्यों के आधार से डॉ. घाटगे उत्तराध्ययन की कथावस्तु को प्राचीन और व्यवस्थित मानते हैं / 146 प्रस्तुत अध्ययन को कथावस्तु महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय 175 तथा 277 से मिलती-जुलती है। महाभारत के दोनों अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय एक है। केवल नामों में अन्तर है। दोनों अध्यायों में महाराजा युधिष्ठिर भीष्म पितामह से कल्याणमार्ग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत करते हैं। उत्तर में भीष्म पितामह प्राचीन इतिहास का एक उदाहरण देते हैं, जिसमें एक ब्राह्मण और मेधावी पुत्र का मधुर संवाद है। पिता ब्राह्मणपुत्र मेधावी से कहता है- वेदों का अध्ययन करो, गहस्थाश्रम में प्रविष्ट होकर पुत्र पैदा करो, क्योंकि उससे पितरों की सद्गति होगी। यज्ञों को करने के पश्चात वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होना / उत्तर में मेधावी ने कहा- संन्यास संग्रहण करने के लिए काल की मर्यादा अपेक्षित नहीं है। अत्यन्त वृद्धावस्था में धर्म नहीं हो सकता। धर्म के लिए 285. This legend certainly Presents a rather striking resemblance to the Prose introduction of the Jataka 509, and must consequently be old. -The Uttaradhyayana Sutra, page 332, Foot note No. 2 149. Annals of the Bhandarkar Oriental Research institue, Vol. 17 (1935-1936), 'A few parallels in Jain and Buddhist works', page-343, 344 [ 53 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org