________________ आकाश में छोड़ दिया जाता। यदि टापू कहीं सन्निकट होता तो वै पक्षी लौट कर नहीं पाते। और दूर होने पर वे पुनः इधर-उधर आकाश में चक्कर लगा कर आ जाते थे। भगवान ऋषभदेव ने जलपोतों का निर्माण किया था / 202 जैन साहित्य में जलपसन के अनेक उल्लेख मिलते हैं / 203 सुत्रकृतांग 2.4 उत्तराध्ययन 05 ग्रादि प्रागम साहित्य में कठिन कार्य की तुलना समुद्रयात्रा से की है / वस्तुत: उस युग में समुद्रयात्रा अत्यधिक कटिन थी। सूत्रकृतांग में लेप नामक गाथा-पति का उल्लेख है, जिस के पास अनेक यान थे / सिंहलद्वीप, जावा सुमात्रा प्रभृति स्थलों पर अनेक व्यापारीगण जाया करते थे। ज्ञाताधर्मकथा सूत्र में.७ जिनपालित और जिनरक्षित गाथापति का वर्णन है, जिन्होंने बारह बार समुद्रयात्रा की थी। अरणक श्रावक श्रादि के यात्रावर्णन भी ज्ञाताधर्मकथा में है। 206 व्यापारीगण स्वयं के यानपात्र भी रखते थे, जो एक स्थान से दूसरे स्थान तक माल लेकर जाते थे। उसमें स्वर्ण, सुपारी प्रादि अनेक वस्तुएँ होती थी। उस समय भारत में स्वर्ण अत्यधिक मात्रा में था, जिस का निर्यात दूसरे देशों में होता था। इस प्रकार सामुद्रिक व्यापार बहुत उन्नत अवस्था में था। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि उस युग में जो व्यक्ति तस्करकृत्य करता था, उसको उग्र दण्ड दिया जाता था। वधभूमि में ले जाकर वध किया जाता था। वह लालवस्त्रों से प्रावेष्टित होता, उसके गले में लाल कनेर की माला होती, जिससे दर्शकों को पता लग जाता कि इसने अपराध किया है / वह कठोर दण्ड इमलिये दिया जाता कि अन्य व्यक्ति इस प्रकार के अपराध करने का दुस्साहस न करें। तस्करों की तरह दुराचारियों को भी शिरोमुण्डन, तर्जन, ताडन, लिङ्गच्छेदन, निर्वासन और मत्यू प्रभति विविध दण्ड दिये जाते थे। सूत्रकृतांग,२.६ निशीथचणि, 21. मनुस्मति,२१" याज्ञवल्क्यस्मति२१२ ग्रादि में विस्तार से इस विषय का निरूपण है। प्रस्तुत अध्ययन में उस युग की राज्य-व्यवस्था का भी उल्लेख है। भारत में उस समय अनेक छोटे-मोटे राज्य थे / उनमें परस्पर संघर्ष भी होता था। प्रतः मुनि को उस समय सावधानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने का सूचन किया गया है। अरिष्टनेमि और राजीमती वाईसवें अध्ययन में अन्धक कुल के नेता समुद्रविजय के पुत्र रथनेमि का वृत्तान्त है / रथनेमि अगिटनेमि 202. आवश्यकनियुक्ति 214 203. (क) वृहत्कल्प, भाग 2, पृ. 342 (ख) प्राचारांगचूणि पृ. 281 204. सूत्रकृतांग 111115 205. उत्तराध्ययन 8 / 206. सूत्रकृतांग-२१७१६९. 207. ज्ञाताधर्मकथा----११९. 208. ज्ञाताधर्मकथा--१११७, पृष्ठ-२०१. 209. मूत्रकृतांग-४।१।२२. 210. निशीथचूणि—१५१५०६० की चूणि. 211. मनुस्मृति–८.३७४. 212. याज्ञवल्क्यस्मति–३।५।२३२. [68 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org