________________ ब्रह्मचारी के लिए आहार का विवेक रखना आवश्यक है। अतिमात्रा में और प्रणीत प्राहार ये दोनों ही त्याज्य हैं। गरिष्ठ पाहार का मरलता से पाचन नहीं होता, इसीलिए कब्ज होती है, कब्ज से कूवासनायें उत्पन्न होती हैं और उमसे वीर्य नष्ट होता है। इसलिए उतना आहार करो जिससे पेट भारी न हो / मलावरोध से वायु कः निर्माण होता है। जितना अधिक वायु का निर्माण होगा, वीर्य पर उतना ही अधिक दबाव पड़ेगा, जिससे ब्रह्मचर्य के पालन में कठिनता होगी। जननेन्द्रिय और मस्तिष्क ये दोनों वीर्य-व्यय के मार्ग है। भोगी तथा रोगी व्यक्ति कामवासना से ग्रस्त होकर तथा वायुविकार आदि शारीरिक रोग होने पर वीर्य का व्यय जननेन्द्रिय के माध्यम से करते हैं। योगी लोग वीर्य के प्रवाह को नीचे से ऊपर की ओर मोड़ देते है जिसमे कामवासना घटती है। ऊपर की ओर प्रवाहित होने वाले वीय का व्यय मस्तिष्क में होता है। जननेन्द्रिय के द्वारा जो बीय व्यय होता है, वह अब्रह्मचर्य है। यदि वह मीमित मात्रा में व्यय होता है तो शरीर पर उतना प्रभाव नहीं होता पर मन म मोह उत्पन्न होने से प्राध्यात्मिक दृष्टि से हानि होती है। जिम व्यक्ति की अब्रह्म के प्रति प्रामक्ति होती है, उसकी वषणग्रन्थियाँ रस, रक का उपयोग बहिःस्राव उत्पन्न करती हैं जिसमें अन्तःवाव उत्पन्न करने वाले अवयव उससे वंचित रह जाते हैं। उनमें जो क्षमता पानी चाहिए, वह नहीं आ पाती / फलतः शरीर में विविध प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। हमी बात को प्रायुर्वेद के प्राचार्यों ने एक रूपक के माध्यम से स्पष्ट किया है। सात क्यारियों में से सातवीं क्यारी में बड़ा खड्डा हो और जल को बाहर निकलने के लिए छेद हो तो मारा जल उस गड्ढे में एकत्रित होगा। यही स्थिति अब्रह्म के कारण शुक्रक्षय को होती है। छहों रम शुक्र धातु की पुष्टि में लगते हैं। किन्तु अत्यन्त प्रब्रह्म के सेवन करने वाले का शुक्र पुष्ट नहीं होता। जिसके फलस्वरूप अन्य धातुओं की पुष्टि नहीं हो पाती और शरीर में नाना प्रकार के रोग पैदा हो जाते हैं / इन्द्रियविजेता ही ब्रह्मचर्य का पालन कर पाता है। ब्रह्मचर्य के पालन से शरीर में अपूर्व स्थिरता, मन में स्थिरता, अपूर्व उत्साह और महिष्णता आदि सदगुणों का विकास होता है / कितने ही चिन्तकों का यह मानना है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य मे शरीर और मन पर जैसा अनुकूल प्रभाव होना चाहिए, वह नहीं होता। उनके चिन्तन में प्रांशिक सच्चाई है। और वह यह है-जब ब्रह्मचर्य का पालन म्वेच्छा से न कर विवशता से किया जाता है, तन से तो ब्रह्मचर्य का पालन होता है किन्तु मन में विकार भावनाएँ होने से वह ब्रह्मचर्य हानिप्रद होता है किन्तु जिस ब्रह्मचर्य में विवशता नहीं होती, पालरिक भावना से जिसका पालन किया जाता है, विकारी भावनाओं को उदात्त भावनाओं की ओर मोड़ दिया जाता है, उस ब्रह्मचर्य का तन और मन पर धंठ प्रभाव पड़ता है। जो लोग ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन करना चाहते हैं वे गरिष्ठ पाहार व दपकर ग्राहार ग्रहण न करें और मन पर भी नियंत्रण करें ! जब काम-वामना मस्तिष्क के पिछले भाग से उभरे तव उमके उभरते ही उस स्थान पर मन को एकाग्र कर शुभ मंका किया जाए तो वह उभार शान्त हो जायेगा / कामजनक अवयवों के स्पर्श से भी वासना उभरती है, इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन में ब्रह्मचर्यसमाधि के दश स्थानों का उल्लेख किया गया है। स्थानांग और ममवायांग में भी नौ गुप्तियों का वर्णन है। जो पाँचवाँ स्थान उत्तराध्ययन में बताया गया है वह स्थानांग और ममवायांग में नहीं है। उत्तराध्ययन में जो दसवाँ स्थान निरूपित है, वह स्थानांग और समवायांग में पाठवा स्थान है। शेष वर्णन समान है। उत्तराध्ययन का 'दश-समाधिस्थान' वर्णन बड़ा ही मनोवैज्ञानिक है। शयन, आसन, कामकथा आदि ब्रह्मचर्य की साधना में विघ्नरूप हैं। इन विघ्नों के निवारण करने में ही ब्रह्मचर्य सम्यक प्रकार से पालन किया जाता है। [ 59 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org