________________ नेमिचन्द्र ने लिखा है-महावन यही है अथवा अन्य ?, यह निश्चित रूप से नहीं कह सकते / हमारी दृष्टि से ये महावल अन्य होने चाहिए। यह अधिक सम्भव है कि विधाकसूत्र में पाये हुए महापुर नगर का अधिपति बल का पुत्र महाबल हो। इस प्रकार अठारहवें अध्ययन में तीर्थकर और चक्रवर्ती राजाओं का निरूपण हया है, जो ऐतिहासिक और प्राग-ऐतिहासिक काल में हुए हैं और जिन्होंने साधना-पथ को स्वीकार किया था। इनके साथ ही दशार्ण, कलिंग, पांचाल, विदेह, गांधार, सौवीर, काशी आदि जनपदों का भी उल्लेख हा है। साथ ही भगवान महावीर के युग में प्रचलित क्रियावाद, प्रक्रियावाद, विनयवाद, अज्ञानवाद, आदि वादों का भी उल्लेख हन्ना है। अठारहवें अध्ययन में इस तरह प्रचुर सामग्री रही हुई है। उन्नीसवें अध्ययन में मगा रानी के पूत्र का वर्णन होने से अध्ययन का नाम 'मगापुत्र' रखा गया है। एक बार महारानियों के साथ प्रानन्द-क्रीड़ा करते हुए म गापुत्र नगर को सौन्दर्य-सुषमा निहार रहे थे। उनकी दृष्टि गजमार्ग पर चलते हुए एक तेजस्वी मुनि पर गिरी / वे टकटकी लगाकर मंत्रमुग्ध से उन्हें देखते रहे। मृगापुत्र को महज स्मृति हो पाई-मैं भी पूर्व जन्म में ऐसा ही साधु था। उन्हें भोग वचन-रूप प्रतीत हुए। संमार में रहना उन्हें अब असह्य हो गया। माता-पिता ने श्रामण्य-जीवन की कठोरता समझाई-वत्म ! श्रामण्य-जीवन का मार्ग फूलों का नहीं काँटों का है। नंगे पैरों, जलती हुए पाग पर चलने के सदाश है / मा होना लोह के जब चबाना है, दहकती ज्वालानों को पीना है। कपड़े के थैले को हवा से भरना है, मह पर्वत को र रखकर तोलना है, महासमुद्र को भुजानों द्वारा तैरना है। इतना ही नहीं तलवार की धार पर नंगे पैरों में चलना है। इम उन श्रमण जीवन को धीर, वीर, गंभीर माधक ही पार कर सकता है। तुम तो बड़ा ही सुकमाल हो / इस कठोर श्रमगवर्या का कैसे पालन कर सकोगे? उतर में मात्र ने नरकों की दारुग वेदना का चित्रण प्रस्तुत किया। नरकों में इस जीव ने कितनी ही असह्य वेदनाओं को महन किया है। अन्त में माता-पिता कहते हैं-काम होने पर वहाँ कौन चिकित्सा करेगा? मृगापुत्र ने कहा- जब जंगल में पशु रुग्ण होते हैं, उनकी कौन चिकित्सा करता है ? वे पहले की तरह ही स्वस्थ हो जाते हैं। वैसे ही मैं भी पूर्ण स्वस्य हो जाऊँगा। अन्त में माता-पिता की अनुमति से मगापुत्र ने मंयम ग्रहण किया और पवित्र श्रामण्य-जीवन का पालन कर सिद्धि को बरण किया / प्रस्नुन अध्ययन में पाई एक गाथा की तुलना बौद्ध ग्रन्थ 'महावग्ग' में पाई हुई गाथा से कर सकते हैं देखिये "जम्मं दुक्खं जरा दुक्खं, रोगा य मरणाणि य / ग्रहो दुक्खो हु संसारो, जत्थ कीसन्ति जन्तवो // " (उत्तरा. 19 / 15) तुलना कीजिए "जातिपि दुक्खा जरापि दुक्खा / व्याधिपि दुक्खा मरणंपि दुक्खं / / " (महावग्ग-१।६।१९) निर्ग्रन्थ : एक चिन्तन बीसवें अध्ययन का नाम “महानिन्थीय"" है। जैन श्रमणों का प्रागमिक प्राचीन नाम निर्ग्रन्थ है। प्राचार्य अगम्यसिंह ने लिखा है--ग्रन्थ का अर्य बाह्य और ग्राभ्यन्तर परिग्रह है। जो उस ग्रन्थ से पूर्णतया मुक्त 191. विपाकसूत्र, शु तस्कन्ध-२, अध्ययन-७ [ 65 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org