________________ तुलना कोजिए-- "ग्राथम्बणं सुपिनं लक्खणं, नो विदहे अथो पि नक्खतं / विरुतं च गम्भकरणं, तिकिच्छं मामको न सेबेग्य // " ---सुत्त., व. 8, 14/13 नवमें अध्ययन में नमि राजर्षि संयम-साधना के पथ को स्वीकार करते हैं। उनकी परीक्षा के लिए इन्द्र ब्राह्मण के रूप को धारण कर पाता है। उनके वैराग्य की परीक्षा करना चाहता है। पर नमि राजर्षि अध्यात्म के अन्तस्तल को स्पर्श किये हए महान साधक थे। उन्होंने कहा- कामभोग त्याज्य हैं, वे तीक्ष्ण शल्य हैं। भयंकर विष के सदृश हैं, आशीविष सर्प के समान हैं। जो इन काम-भोगों की इच्छा करता है, उनका सेवन करता है, वह दुर्गति को प्राप्त होता है। इन्द्र ने उन्हें प्रेरणा दी-अनेक राजा-गण आयके अधीन नहीं हैं, प्रथम उन्हें अधीन करके बाद में प्रव्रज्या ग्रहण करना। राजषि ने कहा-एक मानव रणक्षेत्र में लाखों वीर योद्धाओं पर विजय-वैजयन्ती फहराता है, दूसरा आत्मा को जीतता है। जो अपनी आत्मा को जीतता है, वह उस व्यक्ति की अपेक्षा महान् है। प्रस्तुत संवाद में इन्द्र ब्राह्मण-परम्परा का प्रतिनिधि है तो नमि राजर्षि श्रमण-परम्परा के प्रतिनिधि है। इन्द्र ने मृहस्थाश्रम का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए उसे घोर आश्रम कहा। क्योंकि वैदिक-परम्परा का प्राघोष था---चार पाश्रमों में गृहस्थाश्रम मुख्य है। महस्थ ही यजन करता है, तप तपता है। जैसे---नदी और नद समुद्र में आकर स्थित होते हैं, वैसे ही सभी प्राश्रमी गृहस्थ पर आश्रित हैं / 122 नवमें अध्ययन के नमि राजर्षि की जो कथावस्तु है, उस कथावस्तु की आंशिक तुलना महाजनजातक, सोनकजातक, माण्डव्य मुनि और जनक, जनक और भीष्म के कथानकों से की जा सकती है। हमने विस्तारभय से उन कथानकों को यहाँ पर नहीं दिया है। यहाँ हम नवमें अध्ययन की कुछ गाथात्रों की तुलना जातक, धम्मपद, अंगुत्तरनिकाय, दिव्यावदान और महाभारत के पद्यों के साथ कर रहे हैं। उदाहरण स्वरूप देखिए "सुहं वसामो जीवामो, जेसि मो नत्थि किंधणं / मिहिलाए इज्झमाणीए, न मे डज्झइ किंचणं // " ---उत्तराध्ययनसूत्र 9514 तुलना कीजिए-- "सुसुख बत जीवाम ये सं नो नत्थि किचन / मिथिलाय डरहमानाय न मे किचि अडम्हथ / / " ---जातक 539. श्लोक 125, जातक 529; श्लोक-१६: धम्मपद-१५ 122. गृहस्थ एव यजते, गृहस्थस्तप्यते तपः / चतुर्णामाश्रमाणां तु, गृहस्थश्च विशिष्यते / / यथा नदी नदा: सर्वे, समुद्र यान्ति संस्थितिम् / एबमाश्रमिणः सर्वे, गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् / / --वाशिष्ठधर्मशास्त्र, 8.14-15 [ 43 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org