________________ इस्लामधर्म में स्वैच्छिक मृत्यु का विधान नहीं है। उसका मानना है कि खुदा की अनुमति के विना निश्चित समय के पूर्व किसी को मरने का अधिकार नहीं है। इसी प्रकार ईसाईधर्म में भी आत्महत्या का विरोध किया गया है / ईसाइयों का मानना है कि न तुम्हें दूसरों को मारना है और न स्वयं मरना है / 114 ___ संक्षेप में कहा जाय तो उत्तराध्ययन में मृत्यु के सन्निकट आने पर चारों प्रकार के प्राहार का त्याग कर आत्मध्यान करते हुए जीवन पीर मरण की कामना से मुक्त होकर समभाव पूर्वक प्राणों का विसर्जन करना "पण्डित-मरण" या "सकाम-मरण'' है / जो व्यक्ति जन, परिजन, धन आदि में मूच्छित होकर मृत्यु को वरण करता है, उसका मरण "बाल-मरण" या "अकाम-मरण' है / अकाम और बाल मरण को भगवान महावीर ने त्याज्य बताया है। निर्ग्रन्थ : एक अध्ययन छट्ट अध्ययन का नाम क्षुल्लकनिम्रन्थीय है। 'निग्रन्थ' शब्द जैन-परम्परा का एक विशिष्ट शब्द है। आगम-साहित्य में शताधिक स्थानों पर निग्रन्थ शब्द का प्रयोग हुअा है। बौद्धसाहित्य में "निग्गंठो नायपत्तो" शब्द अनेकों बार व्यवहृत हुआ है।" तपागच्छ पट्टावली में यह स्पष्ट निर्देश है कि गणधर सुधर्मास्वामी से लेकर अाठ पट्ट-परम्परा तक निर्ग्रन्थ-परम्परा के रूप में विश्रुत थी। सम्राट अशोक के शिलालेखों में "नियंठ' शब्द का प्रयोग हुया है !116 जो निम्रन्थ का ही रूप है। ग्रन्थियाँ दो प्रकार की होती हैं--एक स्थल और दूसरी सूक्ष्म / आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करना 'स्थल-ग्रन्थ' कहलाता है तथा आसक्ति का होना 'सुक्ष्म-ग्रन्थ' है / ग्रन्थ का अर्थ गांठ है। निर्ग्रन्थ होने के लिए स्थूल और सूक्ष्म दोनों ही ग्रन्थियों से मुक्त होना आवश्यक है। राग-द्वेष आदि कषायभाव 'आभ्यन्तर ग्रन्थियाँ' हैं। उन्हीं ग्रन्थियों के कारण बाह्यग्रन्थ एकत्रित किया जाता है। श्रमण इन दोनों ही ग्रन्थियों का परित्याग कर साधना के पथ पर अग्रसर होता है। प्रस्तुत अध्यययन में इस सम्बन्ध में गहराई से अनुचिन्तन किया गया है। दुःख का मूल : आसक्ति सातवें अध्ययन में अनासक्ति पर बल दिया है। जहाँ आसक्ति है, वहाँ दुःख है, जहाँ अनासक्ति है, वहाँ सूख है। इन्द्रियाँ क्षणिक सुख की ओर प्रेरित होती हैं, पर वह सच्चा सुख नहीं होता। वह सुखाभास है। प्रस्तुत अध्ययन में पांच उदाहरणों के माध्यम से विषय को स्पष्ट किया गया है। पांचों दृष्टान्त अत्यन्त हृदयग्राही हैं। प्रस्तुत अध्ययन का नाम समवायांग'१७ और उत्तराध्ययननियुक्ति'१८ में "उरविभज्ज" है। अनुयोगद्वार 114. Thou shalt not kill, neither thyself nor another. 115. विसुद्धिमग्गो, विनयपिटक 116. (क) श्री सुधर्मस्वामिनोऽष्टौ सूरीन यावत् निर्ग्रन्थाः / –तपागच्छ पट्टावली (पं. कल्याणविजय संपादित) भाग 1, पृष्ठ 253 (ख) निघठेसु पि मे कटे (,) इमे बियापटा होहंति / —-दिल्ली-टोपरा का सप्तम स्तम्भलेख 117. समवायांग, समवाय 36 118. उरभाउणामगोय, वेयंतो भावो उ ओरब्भो / तत्तो समूट्रियमिण, उरटिभज्जन्ति अज्झयणं / / -उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा 246 [ 41 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org