________________ है, ब्रह्मचर्य मेरा शान्तितीर्थ है। जहाँ पर स्नान कर मैं विमल, विशुद्ध और सुशीतल होकर कमरज का त्याग करता हूँ। यह स्नान कुशल पुरुषों द्वारा इष्ट है। यह महा स्नान है, अतः ऋषियों के लिए प्रशस्त है। इस धर्म-नद में स्नान किये हुए महर्षि बिमल, विशुद्ध होकर उत्तम गति (मुक्ति) को प्राप्त हुए हैं। निग्रंथपरम्परा में प्रात्मशुद्धि के लिए बाह्य स्नान को स्थान नहीं दिया गया है। एकदण्डी, त्रिदण्डी परिव्राजक स्नानशील और भूचिवादी थे। 24 प्राचार्य संघदासगणी ने त्रिदण्डी परिव्राजक को श्रमण कहा है। 125 आचार्य शीलांक ने भी उसे श्रमण माना है।१२३ प्राचार्य वट्टकेर ने तापस, परिव्राजक, एकदण्डी, त्रिदण्डी आदि को श्रमण कहा है।२७ ये श्रमण जल-स्नान को महत्त्व देते थे, किन्तु निर्ग्रन्थपरम्परा ने स्नान को अनाचीर्ण कहा है। बौद्धपरम्परा में पहले स्नान का निषेध नहीं था। बौद्ध भिक्ष नदियों में स्नान करते थे। एक बार बौद्ध भिक्ष 'तपोदा' नदी में स्नान कर रहे थे। राजा श्रेणिय बिम्बिसार वहाँ स्नान के लिए पहुंचे। भिक्षुओं को स्नान करते देखकर वे एक प्रोर रहकर प्रतीक्षा करते रहे। रात्रि होने पर भी भिक्षु स्नान करते रहे। भिक्षुओं के जाने के बाद श्रेणिय बिम्बिसार ने स्नान किया। नगर के द्वार बन्द हो चुके थे। अतः राजा को वह रात बाहर ही वितानी पड़ी। प्रातः गन्ध-विलेपन कर राजा बुद्ध के पास पहुंचा। तथागत ने पूछा---ग्राज इतने शीघ्र गन्धविलेपन कैसे हुआ ? राजा ने सारी बात कही। बुद्ध ने राजा को प्रसन्न कर रवाना किया। तथागत बुद्ध ने भिक्षुत्रों को बुलाकर कहा--तुम राजा के देखने के पश्चात् भी स्नान करते रहे, यह ठीक नहीं किया। उन्होंने नियम बनायाजो भिक्षु पन्द्रह दिन से पूर्व स्नान करेगा, उसे 'पाचित्तिय' दोष लगेगा। गर्मी के दिनों में पहनने तथा शयन करने के वस्त्र पसीने से गन्दे होने लगे तब बुद्ध ने कहा--गर्मी के दिनों में पन्द्रह दिन के अन्दर भी स्नान किया जा सकता है। रुग्णता तथा वर्षा-यांधी के समय में भी स्नान करने की छूट दी गई।१२८ भगवान महावीर ने साधुनों के लिए प्रत्येक परिस्थिति में स्नान करने का स्पष्ट निषेध किया। स्नान के सम्बन्ध में कोई अपवाद नहीं रखा। उत्तराध्ययन 26, आचारचला13°, सूत्रकृतांग 1 दशकालिक 31 आदि में श्रमणों के लिए स्नान करने का वर्जन है। श्रमण भगवान महावीर के समय कितने ही चिन्तक प्रातःस्नान करने से ही मोक्ष मानते थे। भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में उसका विरोध करते हुए कहा-स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं 124. परिहत्ता परिवाजका एकदण्डित्रिदण्ड्यादयः स्नानशीलाः शुचिवादिनः / -मूलाचार, पंचाचाराधिकार 62, वृत्ति 125. निशीथसूत्र, भाग 2, पृष्ठ 2, 3, 332 126. सूत्रकृतांग-१३१॥३।८ वृत्ति 127. मुलाचार, पंचाचाराधिकार 62 PR5. Sacred Book of the Buddhists Vol. XI Part. II LVII P. P. 400-405 129. (क) उहाहितत्ते मेहावी, सिणाणं नो वि पत्थए / गायं नो परिसिंज्जा , न वीएज्जा य अप्पयं / / --उत्तराध्ययन 219 (ख) उत्तराध्ययन 1518 130. प्राचारचूला 2.2.2.1, 2.13 131. सूत्रकृतांग 1.7.21.22; 1.9.13 132. दशवैकालिक, अध्ययन 6, गाथा 60-61 [ 47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org